श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
संसार में प्रायः दूसरों के आचरणों पर ही दृष्टि रहती है। साधक को विचार करना चाहिए कि मेरी दृष्टि अपने भावों पर रहती है या दूसरे के आचरणों पर? दूसरों के आचरणों पर दृष्टि रहने से जिस दृष्टि से अपना कल्याण होता है, वह दृष्टि बंद हो जाती है और अंधेरा हो जाता है। इसलिए दूसरों के श्रेष्ठ और निकृष्ट आचरणों पर दृष्टि न रहकर उनका जो वास्तविक स्वरूप है, उस पर दृष्टि रहनी चाहिए। स्वरूप पर दृष्टि रहने से उनके आचरणों पर दृष्टि नहीं रहेगी; क्योंकि स्वरूप सदा ज्यों का त्यों रहता है जबकि आचरण बदलते रहते हैं। सत्य-तत्त्व पर रहने वाली दृष्टि भी सत्य होती है। परंतु जिसकी दृष्टि केवल आचरणों पर ही रहती है, उसकी दृष्टि असत पर रहने से असत ही होती है। इसमें भी अशुद्ध आचरणों पर जिसकी ज्यादा दृष्टि है, उसका तो पतन ही समझना चाहिए। तात्पर्य है कि जो आचरण आदरणीय नहीं है, ऐसे अशुद्ध आचरण को जो मुख्यता देता है, वह तो अपना पतन ही करता है। अतः भगवान ने यहाँ अशुद्ध आचरण करने वाले पापी में भी समबुद्धि वाले को श्रेष्ठ बताया है। कारण कि उसकी दृष्टि सत्य तत्त्व पर रहने से उसकी दृष्टि में सब कुछ परमात्मतत्त्व ही रहता है। फिर आगे चलकर ‘सब कुछ’ नहीं रहता, केवल परमात्मतत्त्व ही रहता है। उसी की यहाँ ‘समबुद्धिर्विशिष्यते’ पद से महिमा गायी गयी है। विशेष बात गीता का योग ‘समता’ ही है- ‘समत्वं योग उच्यते’।[1] गीता की दृष्टि से अगर समता आ गयी तो दूसरे किसी लक्षण की जरूरत नहीं है अर्थात जिसको वास्तविक समता की प्राप्ति हो गयी है, उसमें सभी सद्गुण-सदाचार स्वतः आ जाएंगे और उसकी संसार पर विजय हो जाएगी।[2] विष्णुपुरा में प्रह्लाद जी ने भी कहा है कि समता भगवान की आराधना (भजन) है- ‘समत्वमाराधनमच्युतस्य’।[3] इस तरह जिस समता की असीम, अपार, अनंत महिमा है, जिसका वर्णन कभी कोई कर ही नहीं सकता, उस समता की प्राप्ति का उपाय है- बुराई रहित होना। बुराई रहित होने का उपाय है-
इन छः बातों का दृढ़ता से पालन करें, तो हम बुराईरहित हो जाएंगे। बुराई रहित होते ही हमारे में स्वतः स्वाभाविक अच्छाई आ जाएगी; क्योंकि अच्छाई हमारा स्वरूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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