श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय क्रिया और पदार्थ के साथ हम निरंतर नहीं रह सकते और वे हमारे साथ निरंतर नहीं रह सकते। कारण यह है कि क्रिया और पदार्थ में निरंतर परिवर्तन होता है, पर हमारे में[1] कभी परिवर्तन नहीं होता। इसलिये क्रिया और पदार्थ निरंतर हमारा त्याग कर रहे हैं। हम भी इनका त्याग करके ही मुक्ति पा सकते हैं, परमशांति पा सकते हैं। इनके साथ रहकर हम मुक्ति, परमशांति नहीं पा सकते; क्योंकि इनके साथ रहने का हमारा स्वभाव नहीं है और हमारे साथ रहने का इनका स्वभाव नहीं है। इसलिये क्रिया और पदार्थ को दूसरों की सेवा में लगाना है। दूसरों की सेवा में लगाना हमारी महत्ता नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है। जो वास्तविकता होती है, वह सहज होती है अर्थात उसमें परिश्रम और अभिमान नहीं होता। अवास्तविकता में ही परिश्रम और अभिमान होता है। क्रिया और पदार्थ दूसरों की सेवा में तभी लग सकते हैं, जब हमारे में ‘उदारता’ आ जाय। यहाँ ध्यान देने की बात है कि उदारता हमारा स्वरूप है[2] इसलिये उदारता में न तो धन खर्च करने की आवश्यकता है और न परिश्रम करने की आश्यकता है। आवश्यकता केवल इसी बात की है कि हम सुखी को देखकर प्रसन्न हो जायँ और दुःखी को देखकर करुणित, दयालु हो जायँ। हृदय में यह करुणा पैदा हो जाय कि यह सुखी कैसे हो? सुखी को देखकर ऐसा भाव हो जाय कि सभी सुखी हो जायँ और दुखी को देखकर ऐसा भाव हो जाय कि कोई दुखी न रहे। भगवान ने भोग और संग्रह को साधन में बाधक बताया है।[3] सुखी को देखकर प्रसन्न होने से भोग भोगने की इच्छा मिट जाती है; क्योंकि भोग भोगने में जो सुख मिलता है, वह सुख हमें दूसरों को सुखी देखकर विशेषता से मिल जायगा तो हमें भोग भोगने की आवश्यकता नहीं रहेगी। दुःखी को देखकर दुःखी होने से संग्रह करने की इच्छा मिट जाती है; क्योंकि अपना दुःख मिटाने के लिये जिन वस्तुओं का हम संग्रह करते हैं और व्यय करते हैं, वे स्वतः दूसरों का दुःख दूर करने में लग जायँगी। जैसे अपने पर कोई दुःख आने से हम उसे दूर करने की चेष्टा करते हैं, ऐसे ही दूसरों को दुःखी देखकर अपनी शक्ति के अनुसार उनका दुःख दूर करने की चेष्टा होने लगेगी। प्रसन्नता और करुणा में एक विलक्षण रस है। वह रस क्रिया और पदार्थ से संबंध विच्छेद करके जीव को परमात्म स्वरूप नित्य रस के साथ अभिन्न करा देता है। ‘योगयुक्तः’- जितेंद्रिय, विशुद्धात्मा, वजितात्मा और सर्वभूतात्मभूतात्मा- इन चार पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त जो कर्मयोगी है, उसे ही यहाँ ‘योगयुक्तः’ कहा गया है। साधन में स्वभाविक प्रवृत्ति न होने में कारण है- उद्देश्य और रुचि में भिन्नता। जब तक अंतःकरण में संसार का महत्त्व है, तब तक उद्देश्य और रुचि का संघर्ष प्रायः मिटता नहीं। उद्देश्य अविनाशी परमात्मा का होता है और रुचि प्रायः नाशवान संसार के प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदि की होती है। उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो जाने पर साधन स्वतः तेजी से होने लगता है। यहाँ ‘योगयुक्तः’ पद से ऐसे कर्मयोगी के लिये आया है, जिसका उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो गयी है अर्थात उद्देश्य और रुचि- दोनों एक परमात्मा में ही हो गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वरूप से
- ↑ उदारता गुण भी है और अपना स्वरूप भी। हमारे पास जो पदार्थ हैं, वे दूसरों की सेवा में लग जायँ- इस भाव से उन्हें दूसरों की सेवा में लगाया जाय, यह उदारता ‘गुण’ है। हमारे पास जो पदार्थ हैं, वे हमारे है ही नहीं- ऐसा समझकर उन्हें दूसरों की सेवा में लगाया जाय, यह उदारता हमारा ‘स्वरूप’ है; क्योंकि इसमें पदार्थों से संबंध विच्छेद हो जाता है और स्वरूप ज्यों-का-त्यों रह जाता है।
- ↑ गीता 2।44
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