श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय अर्जुन के मन में मुख्य रूप से अपने कल्याण की ही इच्छा थी। इसलिये वे बार-बार भगवान के सामने श्रेयविषयक जिज्ञासा रखते हैं।[1] कल्याण की प्राप्ति में इच्छा की प्रधानता है। साधन की सफलता में देरी का कारण भी यही है कि कल्याण की इच्छा पूरी तरह जाग्रत नहीं हुई। जिन साधकों में तीव्र वैराग्य नहीं है, वे भी कल्याण की इच्छा जाग्रत होने पर कर्मयोग का साधन सुगमता पूर्वक कर सकते हैं।[2] अर्जुन के हृदय में भोगों से पूरा वैराग्य नहीं है, पर उनमें अपने कल्याण की इच्छा है, इसलिये वे कर्मयोग के अधिकारी हैं। पहले अध्याय के बत्तीसवें तथा दूसरे अध्याय के आठवें श्लोक को देखने से पता लगता है कि अर्जुन मृत्यु लोक के राज्य की तो बात ही क्या है, त्रिलोकी का राज्य भी नहीं चाहते। परंतु वास्तव में अर्जुन राज्य तथा भोगों को सर्वथा नहीं चाहते हों, ऐसी बात भी नहीं। वे कहते हैं कि युद्ध में कुटुम्बीजनों को मारकर राज्य तथा विजय नहीं चाहता। इसका तात्पर्य है कि यदि कुटुम्बीजनों को मारे बिना राज्य मिल जाय तो मैं उसे लेने को तैयार हूँ। दूसरे अध्याय के पाँचवें श्लोक में अर्जुन यही कहते हैं कि गुरुजनों को माकर भोग भोगना ठीक नहीं है। इससे यह ध्वनि भी निलकती हैं कि गुरुजनों को मारे बिना राज्य मिल जाय तो वह स्वीकार है। दूसरे अध्याय के छठे श्लोक में अर्जुन कहते हैं कौन जीतेगा- इसका हमें पता नहीं और उन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते। इसका तात्पर्य है कि यदि हमारी विजय निश्चित हो तथा उनको मारे बिना राज्य मिलता हो तो मैं लेने को तैयार हूँ। आगे दूसरे अध्याय के सैंतीसवें श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तेरे तो दोनों हाथों में ल़ड्डू हैं; यदि युद्ध में तू मारा गया तो मुझे स्वर्ग मिलेगा और जीत गया तो राज्य मिलेगा। यदि अर्जुन के मन में स्वर्ग और संसार के राज्य की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा नहीं होती तो भगवान शायद ही ऐसा कहते। अतः अर्जुन के हृदय में प्रतीत होने वाला वैराग्य वास्तविक नहीं है। परंतु उनमें अपने कल्याण की इच्छा है, जो इस श्लोक में भी दिखायी दे रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2।7; 3।2; 5।1
- ↑ योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।.....................।।
.................................................................। तेष्वनिर्वण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ।। (श्रीमद्भा. 11।20।6-7)
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