श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय संबंध- पीछे के श्लोक में यह कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता। इस पर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इंद्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोककर भी तो अपने को अक्रिय मान सकता है। इसका समाधान करने के लिये आगे का श्लोक कहते हैं। तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । व्याख्या- ‘तस्मादज्ञानसंभूत.......छित्तवैनं संशयम्’- पूर्व श्लोक में भगवान ने यह सिद्धांत बताया कि जिसने समता के द्वारा समस्त कर्मों से संबंध विच्छेद कर लिया है और ज्ञान के द्वारा समस्त संशयों को कष्ट कर दिया है, उस आत्मपरायण कर्मयोगी को कर्म नहीं बाँधते अर्थात वह जन्म मरण से मुक्त हो जाता है। अब भगवान ‘तस्मात्’ पद से अर्जुन को भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा करते हैं। अर्जुन के हृदय में संशय था- युद्ध रूप घोर कर्म से मेरा कल्याण कैसे होगा? और कल्याण के लिये मैं कर्मयोग का अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोग का? इस श्लोक में भगवान इस संशय को दूर करने की प्रेरणा करते हैं; क्योंकि संशय के रहते हुए कर्तव्य का पालन ठीक तरह से नहीं हो सकता। ‘अज्ञानसंभूतम्’ पद का भाव है कि सब संशय अज्ञान से अर्थात कर्मों के और योग के तत्त्व को ठीक-ठीक न समझने से ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओं और पदार्थों को अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जब तक रहता है, तब तक अंतःकरण में संशय रहते हैं; क्योंकि और पदार्थ विनाश है और स्वरूप अविनाशी है। तीसरे अध्याय में कर्मयोग का आचरण करने की और इस चौथे अध्याय में कर्मयोग को तत्त्व से जानने की बात विशेषरूप से आयी है। कारण कि कर्म करने के साथ-साथ कर्म को जानने की भी बहुत आवश्यकता है। ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीति से नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करने से जो कर्म बाँधने वाले होते हैं, वे ही कर्म मुक्त करने वाले हो जाते हैं।[2] इसलिये इस अध्याय में भगवान ने कर्मों को तत्त्व से जानने पर विशेष जोर दिया है। पूर्वश्लोक में भी ‘ज्ञानसंछिन्नसंशयम्’ पद इसी अर्थ में आया है। जो मनुष्य कर्म करने की विद्या को जान लेता है, उसके समस्त संशयों का नाश हो जाता है। कर्म करने की विद्या है- अपने लिये कुछ करना ही नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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