श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय संबंध- इसी अध्याय के सोलहवें श्लोक में भगवान ने कर्मों का तत्त्व बताने की प्रतिज्ञा की थी। उसका विस्तार से वर्णन करके अब भगवान उसका उपसंहार करते हैं। एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । व्याख्या- ‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’- चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक जिन बारह यज्ञों का वर्णन किया गया है, उनके सिवाय और भी अनेक प्रकार के यज्ञों का वेद की वाणी में विस्तार से वर्णन किया गया है। कारण कि साधकों की प्रकृति के अनुसार उनकी निष्ठाएँ भी अलग-अलग होती हैं और तदनुसार उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं। वेदों में सकाम अनुष्ठानों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। परंतु उन सबसे नाशवान फल की ही प्राप्ति होती है, अविनाशी की नहीं। इसलिये वेदों में वर्णित सकाम अनुष्ठान करने वाले मनुष्य स्वर्ग लोक को जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्यु लोक में आ जाते हैं। इस प्रकार वे जन्म मरण के बंधन में पड़े रहते हैं।[2] परंतु यहाँ उन सकाम अनुष्ठानों की बात नहीं कही गयी है। यहाँ निष्काम कर्मरूप उन यज्ञों की बात कही गयी है, जिनके अनुष्ठान से परमात्मा की प्राप्ति होती है- ‘यान्ति ब्रह्म सनातनम्’।[3] वेदों में केवल स्वर्ग प्राप्ति के साधन रूप सकाम अनुष्ठानों का ही वर्णन हो, ऐसी बात नहीं है। उनमें परमात्मप्राप्ति के साधन रूप श्रावण, मनन, निदिध्यासन, प्राणायाम, समाधि आदि अनुष्ठानों का भी वर्णन हुआ है। उपर्युक्त पदों में उन्हीं का लक्ष्य है। तीसरे अध्याय के चौदहवें पंद्रहवें श्लोकों में कहा गया है कि यज्ञ वेद से उत्पन्न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञों में नित्य प्रतिष्ठित[4] हैं। यज्ञों में परमात्मा नित्य प्रतिष्ठित रहने से उन यज्ञों का अनुष्ठान केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये ही करना चाहिये। ‘कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान्’- चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक जिन बारह यज्ञों का वर्णन हुआ है तथा उसी प्रकार वेदों में जिन यज्ञों का वर्णन हुआ है, उन सब यज्ञों के लिए यहाँ ‘तान् सर्वान्’ पद आये हैं। ‘कर्मजान् विद्धि’ पदों का तात्पर्य है कि वे सब के सब यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात कर्मों से होने वाले हैं। शरीर से जो क्रियाएँ होती हैं, बाण से जो कथन होता है और मन से जो संकल्प होते हैं, वे सभी कर्म कहलाते हैं- ‘शरीरवांग्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’।[5] अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्यकर्म को पाप मानकर उसका त्याग करना चाहते हैं। इसलिये ‘कर्मजान विद्धि’ पदों से भगवान अर्जुन के प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धि रूप कर्तव्य कर्म का त्याग करके अपने कल्याण के लिये तू जो साधन करेगा, वह भी तो कर्म ही होगा। वास्तव में कल्याण कर्म से नहीं होता, प्रत्युत कर्मों से सर्वथा संबंध विच्छेद होने से होता है। इसलिये यदि तू युद्धरूप कर्तव्य कर्म को भी निर्लिप्त रहकर करेगा, तो उससे भी तेरा कल्याण हो जायगा; क्योंकि मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत[6] आसक्ति ही बाँधती है।[7] युद्ध तो तेरा सहज कर्म[8] है, इसलिये उसे करना तेरे लिये भी सुगम भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्मबंधन से
- ↑ गीता 9।21
- ↑ गीता 4।31
- ↑ विराजमान
- ↑ गीता 18।15
- ↑ कर्म की और उसके फल की
- ↑ गीता 6।4
- ↑ स्वधर्म
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