श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय संबंध- अब भगवान कर्मों के तत्त्व को जानने वाले की प्रशंसा करते हैं। कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । व्याख्या- ‘कर्मण्यकर्म यः पश्येत्’- कर्म में अकर्म देखने का तात्पर्य है- कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना अर्थात अपने लिये कोई भी प्रवृत्ति या निवृत्ति न करना। अमुक कर्म मैं करता हूँ, इस कर्म का अमुक फल मुझे मिले- ऐसा भाव रखकर कर्म करने से मनुष्य कर्मों से बँधता है। प्रत्येक कर्म का आरंभ और अंत होता है, इसलिये उसका फल भी आरंभ और अंत होने वाला होता है। परंतु जीव स्वयं नित्य-निरंतर रहता है। इस प्रकार यद्यपि जीव स्वयं परिवर्तनशील कर्म और उसके फल से सर्वथा संबंधत रहित है, फिर भी वह फल की इच्छा के कारण उनसे बँध जाता है। इसलिये चौदहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि मेरे को कर्म नहीं बाँधते; क्योंकि कर्मफल में मेरी स्पृहा नहीं है। फल की स्पृहा या इच्छा ही बाँधने वाली है- ‘फले सक्तो निबध्यते’।[1] फल की इच्छा न रखने से नया राग उत्पन्न नहीं होता और दूसरों के हित के लिये कर्म करने से पुराना राग नष्ट हो जाता है। इस प्रकार राग रूप बंधन न रहने से साधक सर्वथा वीतराग हो जाता है। वीतराग होने से सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। जीव का जन्म कर्मों के अनुबंध से होता है। जैसे, जिस परिवार में जन्म लिया है, उस परिवार के लोगों से ऋणानुबंध है अर्थात किसी का ऋण चुकाना है और किसी से ऋण वसूल करना है। कारण कि अनेक जन्म में अनेक लोगों से लिया है और अनेक लोगों को दिया है। यह लेन-देन का व्यवहार अनेक जन्मों से चला आ रहा है। इसको बंद किये बिना जन्म मरण से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसको बंद करने का उपाय है- आगे से लेना बंद कर दें अर्थात अपने अधिकार का त्याग कर दें और हमारे पर जिनका अधिकार है, उनकी सेवा करनी आरंभ कर दें। इस प्रकार नया ऋण से नहीं और पुराना ऋण[2] चुका दें, तो ऋणानुबंध[3] समाप्त हो जायगा अर्थात जन्म-मरण बंद हो जायगा।[4] जैसे, कोई दुकानदार अपनी दुकान उठाना चाहता है, तो वह दो काम करेगा- पहला, जिसको देना है, उसको दे देगा और दूसरा, जिससे लेना है वह ले लेगा अथवा छोड़ देगा। ऐसा करने से उसकी दुकान उठ जायगी। अगर वह यह विचार रखेगा कि जो लेना है, वह सब-का-सब ले लूँ, तो दुकान उठेगी नहीं। कारण कि जब तक वह लेने की इच्छा से वस्तुएँ देता रहेगा, तब तक दुकान चलती ही रहेगी, उठेगी नहीं। अपने लिये कुछ भी न करने और न चाहने से असंगता स्वतः प्राप्त हो जाती है। कारण कि करण[5] और उपकरण[6] संसार के हैं और संसार की सेवा में लगाने के लिये ही मिले हैं, अपने लिये नहीं। इसलिये संपूर्ण कर्तव्य-कर्म[7] केवल संसार के हित के लिये ही करने से कर्मों का प्रवाह संसार की ओर चला जाता है और साधक स्वयं असंग, निर्लिप्त रह जाता है। यही कर्म में अकर्म देखना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 5।12
- ↑ दूसरों के लिये कर्म करके
- ↑ लेन-देन का व्यवहार
- ↑ गीता 4।23
- ↑ शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण
- ↑ कर्म करने में उपयोगी सामग्री
- ↑ सेवा, भजन, जप, ध्यान, समाधि भी
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