श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय ‘मामुपाश्रिताः’- ‘वीतरागभयक्रोधाः’ में संसार से स्वयं का संबंध विच्छेद है और ‘मन्मयाः माम उपाश्रिताः’ में भगवान की तल्लीनता है। किसी-न-किसी का आश्रय लिये बिना मनुष्य रह ही नहीं सकता। भगवान का अंश जीव भगवान से विमुख होकर दूसरे का आश्रय लेता है तो वह आश्रय टिकता नहीं, प्रत्युत मिटता जाता है। धनादि नाशवान पदार्थो का आश्रय पतन करने वाला होता है। इतना ही नहीं, शुभ कर्म को करने में बुद्धि का, भगवत्प्राप्ति के साधनों का तथा भोग और संग्रह के त्याग का आश्रय लेने पर भी भगवत्प्राप्ति में देरी लगती है। जब तक मनुष्य स्वयं[1] भगवान के आश्रित नहीं हो जाता है, तब तक उसकी पराधीनता मिटती नहीं और वह दुःख पाता ही रहता है। संसार के पदार्थों में मनुष्य का आकर्षण और आश्रय अलग-अलग होता है, जैसे- मनुष्य का आकर्षण तो स्त्री, पुत्र आदि में होता है और आश्रय बड़ों का होता है। परंतु भगवान में लगे हुए मनुष्य का भगवान में ही आकर्षण होता है और भगवान का ही आश्रय होता है; क्योंकि प्रिय-से-प्रिय भी भगवान हैं और बड़े से बड़े भी भगवान हैं। ‘बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः’- यद्यपि ज्ञानयोग[2] से भी मनुष्य पवित्र हो सकता है, तथापि यहाँ भगवान के जन्म और कर्म की दिव्यता को तत्त्व से जानने को ‘ज्ञान’ कहा गया है। इस ज्ञान से मनुष्य पवित्र हो जाता है; क्योंकि भगवान पवित्रों से भी पवित्र हैं- ‘पवित्राणां पवित्रं यः।’ भगवान का ही अंश होने से जीव में भी स्वतः स्वाभाविक पवित्रता है- ‘चेतन अमल सहज सुख रासी’[3]। नाशवान पदार्थों को महत्त्व देने से, उनको अपना मानने से ही यह पवित्र होता है; क्योंकि नाशवान पदार्थों की ममता ही मल[4] है[5]। भगवान के जन्म कर्म के तत्त्व को जानने से जब नाशवान पदार्थों का आकर्षण, उनकी ममता सर्वथा मिट जाती है, तब सब मलिनता नष्ट हो जाती है और मनुष्य परम पवित्र हो जाता है। कर्मयोग का प्रसंग होने से उपर्युक्त पदों में आये ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ कर्मयोग का ज्ञान भी माना जा सकता है। कर्मयोग का ज्ञान है- शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, पद, योग्यता, अधिकार, धन, जमीन आदि मिली हुई मात्र वस्तुएँ संसार की और संसार के लिये ही हैं, अपनी और अपने लिये नहीं हैं। कारण कि स्वयं[6] नित्य है; अतः उसके साथ अनित्य वस्तु कैसे रह सकती है तथा उसके काम भी कैसे आ सकती है? शरीरादि वस्तुएं जन्म से पहले भी हमारे साथ नहीं थीं और मरने के बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी उनका प्रतिक्षण हमसे संबंध विच्छेद हो रहा है। इन मिली हुई वस्तुओं का सदुपयोग करने का ही अधिकार है, अपनी मानने का अधिकार नहीं। ये वस्तुएँ संसार की ही हैं; अतः इन्हें संसार की ही सेवा में लगाना है। यही इनका सदुपयोग है। इनको अपनी और अपने लिये मानना ही वास्तव में बंधन या अपवित्रता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वरूप से
- ↑ सांख्यनिष्ठा
- ↑ मानस 7।117।1
- ↑ अपवित्रता
- ↑ ‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस 7।117 क); ‘ममतामेध्यदूषितः’ (योगवासिष्ठ 6।2।53।11)
- ↑ स्वरूप
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