श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- अब पीछे के श्लोक को पुष्ट करने के लिए भगवान आगे के श्लोक में उदाहरण देते हैं। कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । व्याख्या- 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः'- जो समता से युक्त हैं, वे ही वास्तव में मनीषी अर्थात बुद्धिमान हैं। अठारहवें अध्याय के दसवें श्लोक में भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मों से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मों में राग नहीं करता, वह मेधावी[1] है। कर्म तो फल के रूप में परिणत होता ही है। उसके फल का त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे, कोई खेती में निष्काम भाव से बीज बोये, तो क्या खेती में अनाज नहीं होगा? बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्काम-भाव पूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्म का फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फल का त्याग करने का अर्थ है- कर्मजन्य फल की इच्छा, कामना, ममता, वासना का त्याग करना। इसका त्याग करने में सभी समर्थ हैं। ‘जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः’- समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बंधन से मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समता में स्थित हो जाने से उनमें राग-द्वेष, कामना, वासना, ममता आदि दोष किञ्चिमात्र भी नहीं रहते; अतः उनके पुनर्जन्म का कारण ही नहीं रहता। वे जन्म-मरणरूप बंधन से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। ‘पदं गच्छन्त्यनामयम्’- ‘आमय’ नाम रोग का है। रोग एक विकार है। जिसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकार का विकार न हो, उसको ‘अनामय’ अर्थात निर्विकार कहते हैं। समतायुक्त मनीषी लोग ऐसे निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पद को पंद्रहवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘अव्यय पद’ और अठारहवें अध्याय के छप्पनवें श्लोक में ‘शाश्वत अव्यय पद’ नाम से कहा गया है। यद्यपि गीता में सत्त्वगुण को भी अनामय कहा गया है[2], पर वास्तव में अनामय[3] तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है; क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है, जिसको प्राप्त होकर फिर किसी को भी जन्म मरण के चक्कर में नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में हेतु होने से भगवान ने सत्त्वगुण को भी अनायम कह दिया है। अनामय पद को प्राप्त होना क्या है? प्रकृति विकारशील है, तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह अपने को भी विकारी मान लेता है। परंतु जब यह शरीर के साथ माने हुए संबंध का त्याग कर देता है, तब उसको अपने सहज निर्विकार स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारता का अनुभव होने को ही यहाँ अनामय पद को प्राप्त होना कहा गया है। इस श्लोक में ‘बुद्धुयुक्ताः’ और ‘मनीषिणः’ पद में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि जो भी समता में स्थित हो जाते हैं, वे सब-के-सब अनामय पद को प्राप्त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। उनमें से कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पद की प्राप्ति का अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों के साथ संबंध नहीं रहता, तब स्वतः सिद्ध निर्विकारता का अनुभव हो जाता है। इसके लिए कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारता का निर्माण नहीं करना पड़ता, वह तो स्वतः स्वाभाविक ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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