श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- उन्तालीसवें से अड़तालीसवें श्लोक तक जिस समबुद्धि का वर्णन हुआ है, सकाम कर्म की अपेक्षा उस समबुद्धि की श्रेष्ठता आगे के श्लोक में बताते हैं। दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय । व्याख्या- 'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात्'- बुद्धियोग अर्थात समता की अपेक्षा सकामभाव से कर्म करना अत्यंत ही निकृष्ट है। कारण कि कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा उन कर्मों का फल का भी संयोग और वियोग होता है। परंतु योग[4] नित्य है; उसका कभी वियोग नहीं होता। उसमें कोई विकृति नहीं आती। अतः समता की अपेक्षा सकाम कर्म अत्यंत ही निकृष्ट हैं। संपूर्ण कर्मों में समता ही श्रेष्ठ है। समता के बिना तो मात्र जीव कर्म करते ही रहते हैं तथा उन कर्मों के परिणाम में जन्मते-मरते और दुःख भोगते रहते हैं। कारण कि समता के बिना कर्मों में उद्धार करने की ताकत नहीं है। कर्मों में समता ही कुशलता है। अगर कर्मों में समता नहीं होगी तो शरीर में अहंता-ममता हो जाएगी, और शरीर में अहंता-ममता होना पशुबुद्धि है। भागवत में शुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा है- ‘त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।’[5] अर्थात हे राजन ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा। ‘दूरेण’ कहने का तात्पर्य है कि जैसे प्रकाश और अंधकार कभी समकक्ष नहीं हो सकते, ऐसे ही बुद्धियोग और सकाम कर्म भी कभी समकक्ष नहीं हो सकते। इन दोनों में दिन-रात की तरह महान अंतर है। कारण कि बुद्धियोग तो परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला है और सकाम कर्म जन्म-मरण देने वाला है। ‘बुद्धौ शरणमन्विच्छ’- तू बुद्धि[6] की शरण ले। समता में निरंतर स्थित रहना ही उसकी शरण लेना है। समता में स्थित रहने से ही तुझे स्वरूप में अपनी स्थिति का अनुभव होगा। ‘कृपणाः फलहेतवः’- कर्मों के फल का हेतु बनना अत्यंत निकृष्ट है। कर्म, कर्म फल, कर्म सामग्री और शरीरादि कारणों के साथ अपना संबंध जोड़ लेना ही कर्म फल का हेतु बनना है। अतः भगवान ने सैंतालीसवें श्लोक में 'मा कर्मफल हेतुर्भूः’ कहकर कर्मों का फल क हेतु बनने में निषेध किया है। कर्म और कर्मफल का विभाग अलग है तथा इन दोनों से रहित जो नित्य तत्त्व है, उसका विभाग अलग है। वह नित्य तत्त्व अनित्य कर्मफल के आश्रित हो जाए- इसके समान निकृष्टता और क्या होगी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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