श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त क्यों होती हैं- इसका आगे के तीन श्लोकों में बताते हैं। यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः । व्याख्या- 'कामात्मानः'- वे कामनाओं में इतने रचे पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपने में और कामना में भिन्नता ही नहीं दीखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामना के बिना आदमी जी नहीं सकता, कामना के बिना आदमी पत्थर की तरह जड हो जाता है, उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाववाले पुरुष 'कामात्मानः' है। स्वयं तो नित्य-निरंतर ज्यों का त्यों रहता है, उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्मा का अंश है और कामना संसार के अंश को लेकर है। अतः स्वयं और कामना- ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं। परंतु कामना में रचे-पचे लोगों को अपने स्वरूप का अलग भान ही नहीं होता। 'स्वर्गपराः'- स्वर्ग में बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं, इसलिए उनके लक्ष्य में स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्ति में ही रात-दिन लगे रहते हैं। यहाँ 'स्वर्गपराः' पद से उन मनुष्यों की बात कही गयी है, जो वेदों में, शास्त्रों में वर्णित स्वर्गादि लोकों में आस्था रखने वाले हैं। 'वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनिः'- वे वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों में प्रीति रखने वाले हैं अर्थात वेदों का तात्पर्य वे केवल भोगों में स्वर्ग की प्राप्ति में मानते हैं, इसलिए वे 'वेदवादरताः' हैं। उनकी मान्यता में यहाँ के और स्वर्ग के भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात उनकी दृष्टि में भोगों के सिवाय परमात्मा, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अतः वे भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है। यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः'- जिनमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशी का विवेक नहीं है, ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदों की जिस वाणी में संसार और भोगों का वर्णन है, उस पुष्पित वाणी को कहा करते हैं। यहाँ "'पुष्पिताम् कहने का तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्य प्राप्ति का वर्णन करने वाली वाणी केवल फूल-पत्ती की शोभा से नहीं। वह वाणी स्थायी फल देने वाली नहीं है। उस वाणी का जो फल-स्वर्गादि का भोग है, वह केवल देखने में ही सुंदर दीखता है, उसमें स्थायीपना नहीं है। 'जन्मकर्मफलप्रदाम्'- वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफल को देने वाली है; क्योंकि उसमें सांसारिक भोगों को ही महत्त्व दिया गया है। उन भोगों का राग ही आगे जन्म होने में कारण है।[2] क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगति प्रति'- वह पुष्पित अर्थात दिखाऊ शोभायुक्त वाणी भोग और ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए जिन सकामभाव अनुष्ठानों का वर्णन करती है, उनमें क्रियाओं की बहुलता रहती है अर्थात उन अनुष्ठानों में अनेक तरह की विधियाँ होती हैं, अनेक तरह की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, अनेक तरह के पदार्थों की जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदि में परिश्रम भी अधिक होता है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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