श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय यह संसार अनित्य है, एक क्षण भी स्थिर रहने वाला नहीं है। परंतु जो सदा रहने वाला है, जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उस देही की तरफ लक्ष्य कराने में ‘नित्यः’ पद का तात्पर्य है। देखने, सुनने, पढ़ने, समझने में जो कुछ प्राकृत संसार आता है, उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘सर्वगतः’ पद का तात्पर्य है। संसार मात्र में जो कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि हैं, वे सब के सब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि में जो अपने स्वरूप से कभी चलायमान[1] नहीं होता, उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ‘अचलः’ पद का तात्पर्य है। प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार में प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है, परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तिनशील संसार में जो क्रियारहित, परिवर्तनरहित, स्थायी स्वभाव वाला तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘स्थाणुः’ पद का तात्पर्य है। मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे। परंतु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट तक ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा- उस तत्त्व[2] की तरफ लक्ष्य कराने में ‘सनातनः’ पद का तात्पर्य है। उपर्युक्त पाँचों विशेषणों का तात्पर्य है कि शरीर संसार के साथ तादात्म्य होने पर भी और शरीर-शरीरी-भाव का अलग-अलग अनुभव न होने पर भी शरीरी नित्य निरंतर एकरस, एकरूप रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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