श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । व्याख्या- ‘वासांसि जीर्णानि......संयाति नवानि देही’- इसी अध्याय के तेरहवें श्लोक में सूत्र रूप से कहा गया था कि देहान्तर की प्राप्ति के विषय में धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बात को उदाहरण देकर स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ों के परिवर्तन पर मनुष्य को शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरों के परिवर्तन पर भी शोक नहीं होना चाहिए। कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं; अतः यहाँ कपड़े बदलने के उदाहरण में ‘नरः’ पद मनुष्योनि का वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, जवान-बूढ़े आदि सभी जाते हैं। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों को धारण करता है। पुराना शरीर छोड़ने को ‘मरना’ कह देते हैं, और नया शरीर धारण करने को ‘जन्मना’ कह देते हैं। जब तक प्रकृति के साथ संबंध रहता है, तब तक यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर कर्मों के अनुसार या अंतकालीन चिंतन के अनुसार नये-नये शरीरों को प्राप्त होता रहता है। यहाँ ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि जब तक शरीरी को अपने वास्तविक स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं होता, तब तक यह शरीरी अनन्तकाल तक शरीर धारण करता ही रहता है। आज तक इसने कितने शरीर धारण किए हैं, इसकी गिनती भी संभव नहीं है। इस बात को लक्ष्य में रखकर ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन का प्रयोग किया गया है तथा संपूर्ण जीवों का लक्ष्य कराने के लिए यहाँ ‘देही’ पद आया है। यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध में तो जीर्ण कपड़ों की बात कही है और उत्तरार्ध में जीर्ण शरीर की। जीर्ण कपड़ों का दृष्टान्त शरीर में कैसे लागू होगा? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानों के भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ों के जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं ! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होने पर ही मरता और आयु समाप्त होना ही शरीर का जीर्ण होना है[1]। शरीर चाहे बच्चों का हो, चाहे जवानों का, हो, चाहे वृद्धों का हो, आयु समाप्त होने पर वे सभी जीर्ण ही कहलाएंगे। इस श्लोक में भगवान ने ‘यथा’ और ‘तथा’ पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीर में चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएं अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तर की प्राप्ति अपने-आप होती है[2] यहाँ तो ‘यथा’[3] और ‘तथा’[4] घट जाते हैं। परंतु[5] पुराने कपड़ों को छोड़ने में और नये कपड़े धारण करने में तो मनुष्य की स्वतंत्रता है, पर पुराने शरीरों को छोड़ने में और नये शरीर धारण करने में देह की स्वतंत्रता नहीं है। इसलिए यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ कैसे घटेंगे ? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान का तात्पर्य स्वतंत्रता-परतंत्रता की बात कहने में नहीं है, प्रत्युत शरीर के वियोग से होने वाले शोक को मिटाने में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विवेक-विचारपूर्वक देखा जाए तो आयु प्रतिक्षण समाप्त हो रही है अर्थात शरीर प्रतिक्षण जीर्ण हो रहा है, प्रतिक्षण मर रहा है। यह एक क्षण भी स्थिर नहीं है। जैसे जवान होने से बालकपन मर जाता है, तो वास्तव नें यह बालकपन निरंतर मरता ही रहा है। परंतु उधर दृष्टि न होने से प्रतिक्षण होने वाली मौत की तरफ खयाल नहीं जाता। यही वास्तव में बेहोशी है।
- ↑ 2।13
- ↑ जैसे
- ↑ वैसे
- ↑ इस श्लोक में
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