श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- जब अर्जुन ने युद्ध करने के लिए साफ मना कर दिया, तब उसके बाद क्या हुआ- इसको संजय आगे के श्लोक में बताते हैं।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। 10 ।।
हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के मध्यभाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए- से भगवान हृषीकेश ये[1] वचन बोले।
व्याख्या- ‘तमुवाच हृषीकेशः..... विषीदन्तमिदं वचः’- अर्जुन ने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओं को देखने के लिए भगवान से दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने के लिए कहा था। अब वहीं पर अर्थात दोनों सेनाओं के बीच में अर्जुन विषादमग्न हो गये! वास्तव में होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्य से आये थे, उस उद्देश्य के अनुसार युद्ध के लिए खड़े हो जाते। परंतु उस उद्देश्य को छोड़कर अर्जुन चिंता-शोक में फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओं के बीच में ही भगवान शोकमग्न अर्जुन को उपदेश देना आरंभ करते हैं।
‘प्रहसन्निव’[2] का तात्पर्य है कि अर्जुन के भाव बदलने को देखकर अर्थात पहले जो युद्ध करने का भाव था, वह अब विषाद में बदल गया- इसको देखकर भगवान को हँसी आ गयी। दूसरी बात, अर्जुन ने पहले[3] कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरे को शिक्षा दीजिये अर्थात मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरे को क्या करना चाहिये- इसकी शिक्षा दीजिये; परंतु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफ से ही निश्चय कर लिया कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’- यह देखकर भगवान को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होने पर ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’ आदि कुछ भी सोचने का अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे। अर्जुन भगवान के शरण होने के बाद ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा कहकर एक तरह से शरणागत होने से हट गये। इस बात को लेकर भगवान को हँसी आ गयी। ‘इव’ का तात्पर्य है कि जोर से हँसी आने पर भी भगवान मुस्कराते हुए ही बोले।
जब अर्जुन ने यह कह दिया कि ‘मैं युद्ध नही करूँगा’ तब भगवान को यहीं कह देना चाहिए था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा कर- ‘यथेच्छसि तथा कुरु’।[4] परंतु भगवान ने यही समझा कि मनुष्य जब चिंता-शोक से विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्य का निर्णय न कर सकने के कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुन की हो रही है। अतः भगवान के हृदय में अर्जुन के प्रति अत्यधिक स्नेह होने के कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान साधक के वचनों की तरफ ध्यान न देकर उसके भाव की तरफ ही देखते हैं। इसलिए भगवान अर्जुन के ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ इस वचन की तरफ ध्यान न देकर[5] उपदेश आरंभ कर देते हैं।
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