|
प्रथम अध्याय
विशेष बात
अभी हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है, उन वस्तुओं के बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरह से जी रहे हैं। परंतु जब वे वस्तुएँ हमें मिलने के बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभाव का बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओं का जो निरंतर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था, जितना वस्तुओं का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओँ का अभाव मानता है, उन वस्तुओं को वह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है, बीच में प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होने पर भी अंत में उनका अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही, जो कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी। बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिए केवल परिश्रम ही परिश्रम पल्ले पड़ा, दु:ख-ही-दु:ख भोगना पड़ा।
बीच में वस्तुओं के संयोग से थोड़ा सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभ के कारण ही हुआ है। अगर भीतर में लोभ रूपी दोष न हो, तो वस्तुओं के संयोग से सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो तो कुटुम्बियों से सुख हो ही नहीं सकता। लालच रूपी दोष न हो, तो संग्रह का सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसार का सुख किसी-न-किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता। परंतु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक-विचार को लुप्त कर देता है।
‘कथं न ज्ञेयमस्माभिः.....प्रपश्यद्भिर्जनार्दन’- अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुल क्षय से होने वाले दोष को और मित्र द्रोह से होने वाले पाप को नहीं देखते, तो भी हम लोगों को कुल क्षय से होने वाली अनर्थ परंपरा को देखना ही चाहिए।
[जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोक से चौवालीसवें श्लोक तक करेंगे];
क्योंकि हम कुल क्षय से होने वाले दोषों को भी अच्छी तरह से जानते हैं और मित्रों के साथ द्रोह[1] से होने वाले पाप को भी अच्छी तरह से जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिए अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःख से तो हमारे पूर्व पापों का ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी। परंतु हमारे मन में अगर द्रोह- वैरभाव होगा, तो वह मरने के बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म जन्मान्तर तक हमें पाप करने में प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करने वाले और मित्रों के साथ द्रोह पैदा करने वाले इस युद्ध रूपी पाप से बचने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए? अर्थात विचार करके हमें इस पाप से जरूर ही बचना चाहिए।
यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदि के लोभ की तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह[2] में आबद्ध होकर बोल रहे हैं- इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जब तक दूसरों के दोष की तरफ रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता, उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्था में वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी दूसरों का दोष देखना- यह दोष तो है ही। दूसरों का दोष देखना एवं अपने में अच्छाई का अभिमान करना- ये दोनों दोष साथ में ही रहते हैं। अर्जुन को भी दुर्योधन आदि में दोष दीख रहे हैं और अपने में अच्छाई का अभिमान हो रहा है[3], इसलिए उनको अपने में महरूपी दोष नहीं दीख रहा है।
|
|