श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय
उसके बाद दुर्योधन ने अपनी सेना के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के नाम लेकर उनके रण कौशल आदि की प्रशंसा की। दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए भीष्मजी ने जोर से शंख बजाया। उसको सुनकर कौरव सेना में शंख आदि बाजे बज उठे। फिर चौदहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक ‘पाण्डवाः’ पद का उत्तर देंगे कि रथ में बैठे हुए पाण्डवपक्षीय भगवान श्रीकृष्ण ने शंख बजाया। उसके बाद अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव आदि ने अपने-अपने शंख बजाये, जिससे दुर्योधन की सेना का हृदय दहल गया। उसके बाद भी संजय पाण्डवों की बात कहते-कहते बीसवें श्लोक से श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का प्रसंग आरंभ कर देंगे।] व्याख्या- ‘तदा’- जिस समय दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए खड़ी हुई थीं, उस समय की बात संजय यहाँ ‘तदा’ पद से कहते हैं। कारण कि धृतराष्ट्र का प्रश्न ‘युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया’- इस विषय को सुनने के लिए ही है। ‘तु’- धृतराष्ट्र ने अपने और पांडु के पुत्रों के विषय में पूछा है। अतः संजय भी पहले धृतराष्ट्र के पुत्रों की बात बताने के लिए यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग करते हैं। ‘दृष्टवा[2] पाण्डवानीकं व्यूढम्’ – पाण्डवों की वज्रव्यूह से खड़ी सेना को देखने का तात्पर्य है कि पाण्डवों की सेना बड़ी ही सुचारू रूप से और एक ही भाव से खड़ी थी अर्थात उनके सैनिकों में दो भाव नहीं थे, मतभेद नहीं था[3]। उनके पक्ष में धर्म और भगवान श्रीकृष्ण थे। जिसके पक्ष में धर्म और भगवान होते हैं, उसका दूसरों पर बड़ा असर पड़ता है। इसलिए संख्या में कम होने पर भी पाण्डवों की सेना का तेज[4] था और उसका दूसरों पर बड़ा असर पड़ता था। अतः पाण्डव सेना का दुर्योधन पर भी बड़ा असर पड़ा, जिससे वह द्रोणाचार्य के पास जाकर नीतियुक्त गंभीर वचन बोलता है। ‘राजा दुर्योधनः’- दुर्योधन को राजा कहने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का सबसे अधिक अपनापन[5] दुर्योधन में ही था। परंपरा की दृष्टि से भी युवराज दुर्योधन ही था। राज्य के सब कार्यों की देखभाल दुर्योधन ही करता था। धृतराष्ट्र तो नाममात्र के राजा थे। युद्ध होने में भी मुख्य हेतु दुर्योधन ही था। इन सभी कारणों से संजय ने दुर्योधन के लिए ‘राजा’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘आचार्यमुपसंगम्य’- द्रोणाचार्य के पास जाने में मुख्यतः तीन कारण मालूम देते हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आक्षेप
- ↑ इस अध्याय में तीन बार 'दृष्टवा' (देखकर) पद का प्रयोग हुआ है- पाण्डव-सेना को देखकर दुर्योधन का द्रोणाचार्य के पास जाना (1|2); कौरव सेना को देखकर अर्जुन का धनुष का उठाना (1|20); और अपने स्वजनों-(कुटुम्बियों-) को देखकर अर्जुन का मोहाविष्ट होन (1|28)। इन तीनों में से दो 'दृष्टवा' तो आपस में सेना देखने के लिये आये हैं और एक 'दृष्टवा' स्वजनों को देखने के लिये आया है, जिससे अर्जुन का भाव बदल जाता है।
- ↑ कौरव सेना में मतभेद था; क्योंकि दुर्योधन, दु:शासन आदि तो युद्ध करना चाहते थे, पर भीष्म, द्रोण, विकर्ण आदि युद्ध नहीं करना चाहते थे। यह नियम है कि जहाँ आपस में मतभेद होता है, वहाँ तेज (प्रभाव) नहीं रहता।
- ↑ प्रभाव
- ↑ मोह
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