श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । 'व्याख्या'- ‘धार्तराष्ट्रस्य[1] दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः’- यहाँ दुर्योधन को दुष्ट बुद्धि कहकर अर्जुन यह बताना चाहते हैं कि इस दुर्योधन ने हमारा नाश करने के लिए आज तक कई तरह के षड्यंत्र रचे हैं। हमें अपमानित करने के ले कई तरह के उद्योग किए हैं। नियम के अनुसार और न्यायपूर्वक हम आधे राज्य के अधिकारी हैं, पर उसको भी यह हड़पना चाहता है, देना नहीं चाहता। ऐसी तो इसकी दुष्टबुद्धि है; और यहाँ आये हुए राजा लोग युद्ध में इसका प्रिय करना चाहते हैं ! वास्तव में तो मित्रों का यह कर्तव्य होता है कि वे ऐसा काम करें, ऐसी बात बताएं, जिससे अपने मित्र का लोक-परलोक में हित हो। परंतु ये राजा लोग दुर्योधन की दुष्टबुद्धि को शुद्ध न करके उलटे उसको बढ़ाना चाहते है और दुर्योधन से युद्ध कराकर, युद्ध में उसकी सहायता करके उसका पतन ही करना चाहते हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन का हित किस बात में है; उसको राज्य भी किस बात से मिलेगा और उसका परलोक भी किस बात से सुधरेगा- इन बातों का वे विचार ही नहीं कर रहे हैं। अगर ये राजा लोग उसको यह सलाह देते कि भाई, कम से कम आधा राज्य तुम रखो और पांडवों का आधा राज्य पांडवों को दे दो तो इससे दुर्योधन का आधा राज्य भी रहता और उसका परलोक भी सुधरता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धार्तराष्ट्र पद के दो अर्थ होते हैं-
- धृतराष्ट्र के पुत्र अथवा संबंधी
- अन्यापूर्वक राष्ट्र(राज्य) को धारण करने वाले। यहाँ धृतराष्ट्र के पुत्र- दुर्योधन के लिए ही ‘धार्तराष्ट्रस्य’ पद आया है।
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