श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अब एक ध्यान देने की बात है कि पहले कुटुम्ब का स्मरण होने से अर्जुन को मोह हुआ था। उस मोह के वर्णन में भगवान ने यह प्रक्रिया बतायी थी कि विषयों के चिन्तन से आसक्ति, आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से मोह, मोह से स्मृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पतन होता है।[2] अर्जुन भी यहाँ उसी प्रकिया को याद दिलाते हुए कहते हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मोह से जो स्मृति भ्रष्ट होती है, वह स्मृति मिल गयी है- ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा।’ स्मृति नष्ट होने से बुद्धिनाश हो जाता है, इसके उत्तर में अर्जुन कहते हैं कि मेरा संदेह चला गया है- ‘गतसंदेहः।’ बुद्धिनाश से पतन होता है, उसके उत्तर में कहते हैं कि मैं अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित हूँ- ‘स्थितोऽस्मि।’ इस प्रकार उस प्रक्रिया को बताने में अर्जुन का तात्पर्य है कि मैंने आपके मुख से ध्यानपूर्वक गीता सुनी है, तभी तो आपने सम्मोह का कहाँ प्रयोग किया है और सम्मोह की परंपरा कहाँ कही है, वह भी मेरे को याद है। परंतु मेरे मोह का नाश होने में तो आपकी कृपा ही कारण है। यद्यपि वहाँ का और यहाँ का- दोनों का विषय भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है; क्योंकि वहाँ विषयों के चिन्तन करने आदि क्रम से सम्मोह होने की बात है और यहाँ सम्मोह मूल अज्ञान का वाचक है, फिर भी गहरा विचार किया जाए तो भिन्नता नहीं दीखेगी। वहाँ का विषय ही यहाँ आया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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