श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
संसार और भगवान- इन दोनों का संबंध दो तरह का होता है। संसार का संबंध केवल माना हुआ है और भगवान का संबंध वास्तविक है। संसार का संबंध तो मनुष्य को पराधीन बनाता है, गुलाम बनाता है, पर भगवान का संबंध मनुष्य को स्वाधीन बनाता है, चिन्मय बनाता है और बनाता है भगवान का भी मालिक! किसी बात को लेकर अपने में कुछ भी विशेषता दीखती है, यही वास्तव में पराधीनता है। यदि मनुष्य विद्या, बुद्धि, धन-संपत्ति, त्याग, वैराग्य आदि किसी बात को लेकर अपनी विशेषता मानता है तो यह उस विद्या आदि की पराधीनता, दासता ही है। जैसे, कोई धन को लेकर अपने में विशेषता मानता है तो यह विशेषता वास्तव में धन की ही हुई, खुद की नहीं। वह अपने को धन का मालिक मानता है, पर वास्तव में वह धन का गुलाम है। संसार का यह कायदा है कि सांसारिक पदार्थों को लेकर जो अपने में कुछ विशेषता मानता है, उसको ये सांसारिक पदार्थ तुच्छ बना देते हैं, पद दलित कर देते हैं। परंतु जो भगवान के आश्रित होकर सदा भगवान पर ही निर्भर रहता है उसको अपनी कुछ विशेषता दीखती ही नहीं, प्रत्युत भगवान की ही अलौकिकता, विलक्षणता, विचित्रता दीखती है। भगवान चाहे उसको अपना मुकुटमणि बना लें और चाहे अपना मालिक बना लें, तो भी उसको अपने में कुछ भी विशेषता नहीं दीखती। प्रभु का यह कायदा है कि जिस भक्त को अपने में कुछ भी विशेषता नहीं दीखती, अपने में किसी बात का अभिमान नहीं होता, उस भक्त में भगवान की विलक्षणता उतर आती है। किसी किसी में यहाँ तक विलक्षणता उतर आती है कि उसके शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थ भी चिन्मय बन जाते हैं। उनमें जडता का अत्यंत अभाव हो जाता है। ऐसे भगवान के कई प्रेमी भक्त भगवान में ही समा गए, अंत में उनके शरीर नहीं मिले। |
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