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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों को लेकर जो स्वभाव बनता है, उस स्वभाव के अनुसार जो कर्म नियत किए जाते हैं, वे ‘स्वभावनियत कर्म’ कहलाते हैं। उन्हीं को स्वभावप्रभव, स्वभावज, स्वधर्म, स्वकर्म और सहज कर्म कहा है। तात्पर्य यह है कि जिस वर्ण, जाति में जन्म लेने से पहले इस जीव के जैसे गुण और कर्म रहे हैं, उन्हीं गुणों और कर्मों के अनुसार उस वर्ण में उसका जन्म हुआ है। कर्म तो करने पर समाप्त हो जाते हैं, पर गुण-रूप से उनके संस्कार रहते हैं। जन्म होने पर गुणों के अनुसार ही उसमें गुण और पालनीय आचरण स्वाभाविक ही उत्पन्न होते हैं अर्थात उनको न तो कहीं से लाना पड़ता है और न उनके लिए परिश्रम ही करना पड़ता है। इसलिए उनको स्वभावज और स्वभावनियत कहा है। यद्यपि ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः’[1] के अनुसार कर्ममात्र में दोष आता ही है, तथापि स्वभाव के अनुसार शास्त्र ने जिस वर्ण के लिए जिन कर्मों की आज्ञा दी है, उन कर्मों को अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से किया जाए, तो उस वर्ण के व्यक्ति को उन कर्मों का दोष (पाप) नहीं लगता। ऐसे ही जो केवल शरीर-निर्वाह के लिए कर्म करता है उसको भी पाप नहीं लगता- ‘शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्रोति किल्बिषम्’।[2] यहाँ एक बड़ी भारी शंका पैदा होती है कि एक आदमी कसाई के घर पैदा होता तो उसके लिए कसाई का कर्म सहज (साथ ही पैदा हुआ) है, स्वाभाविक है। स्वभावनियत कर्म करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता, तो क्या कसाई के कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए? अगर उसको कसाई के कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, तो फिर निषिद्ध आचरण कैसे छूटेगा? कल्याण कैसे होगा?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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