श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: । अर्थ- अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन। व्याख्या- ‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’- गीता के अध्ययन से ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य की जैसी स्वतः सिद्ध स्वाभाविक प्रकृति (स्वभाव) है, उसमें अगर वह कोई नयी उलझन पैदा न करे, राग-द्वेष न करे तो वह प्रकृति उसका स्वाभाविक ही कल्याण कर दे। तात्पर्य है कि प्रकृति के द्वारा प्रवाह रूप से अपने-आप होने वाले जो स्वाभाविक कर्म हैं, उनका स्वार्थ-त्यागपूर्वक प्रीति और तत्परता से आचरण करे; परंतु कर्मों के प्रवाह के साथ न राग हो, न द्वेष हो और न फलेच्छा हो। राग-द्वेष और फलेच्छा से रहित होकर क्रिया करने से ‘करने का वेग’ शांत हो जाता है और कर्म में आसक्ति न होने से नया वेग पैदा नहीं होता। इससे प्रकृति के पदार्थों और क्रियाओं के साथ निर्लिप्तता (असंगता) आ जाती है। निर्लिप्तता होने से प्रकृति की क्रियाओं का प्रवाह स्वाभाविक ही चलता रहता है और उनके साथ अपना कोई संबंध न रहने से साधक की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है, जो कि प्राणिमात्र की स्वतः-स्वाभाविक है। अपने स्वरूप में स्थिति होने पर उसका परमात्मा की तरफ स्वाभाविक आकर्षण हो जाता है। परंतु यह सब होता है कर्मों में ‘अभिरति’ होने से, आसक्ति होने से नहीं। कर्मों में एक तो ‘अभिरति’ होती है और एक ‘आसक्ति’ होती है। अपने स्वाभाविक कर्मों को केवल दूसरों के हित के लिए तत्परता और उत्साहपूर्वक करने से अर्थात केवल देने के लिए कर्म करने से मन में जो प्रसन्नता होती है, उसका नाम ‘अभिरति’ है। फल की इच्छा से कुछ करना अर्थात कुछ पाने के लिए कर्म करना ‘आसक्ति’ है। कर्मों में अभिरति से कल्याण होता है और आसक्ति से बंधन होता है। इस प्रकरण के ‘स्वे स्वे कर्मणि’, ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’, ‘स्वभावनियतं कर्म’, ‘सहजं कर्म’ आदि पदों में ‘कर्म’ शब्द एकवचन में आया है। इसका तात्पर्य है कि मनुष्य प्रीति और तत्परतापूर्वक चाहे एक कर्म करे, चाहे अनेक कर्म करे, उसका उद्देश्य केवल परमात्म-प्राप्ति होने से उसकी कर्तव्यनिष्ठा एक ही होती है। |
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