श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
परिणाम में सात्त्विक सुख राजस और तामस सुख से ऊँचा उठाकर जडता से संबंध-विच्छेद करा देता है और इसमें आसक्ति न होने से अंत में परमात्मा की प्राप्ति करा देता है। इसलिए यह परिणाम में अमृत की तरह है। ‘तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तम्’- सत्संग, स्वाध्याय, संकीर्तन, जप, ध्यान, चिन्तन, आदि से जो सुख होता है, वह मान, बड़ाई, आराम, रुपए, भोग आदि विषयेन्द्रिय संबंध का नहीं है और प्रमाद, आलस्य, निद्रा का भी नहीं है। वह तो परमात्मा के संबंध का है। इसलिए वह सुख सात्त्विक कहा गया है। संबंध- अब राजस सुख का वर्णन करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सात्त्विक, राजस और तामस- ये तीनों गुण अंतःकरण में अमूर्तरूप से रहते हैं। इनका पता वृत्तियों से ही लगता है, जिसका वर्णन चौदहवें अध्याय में ग्यारहवें से तेरहवें श्लोक तक हुआ है।
- ↑ गीता 5:21
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