श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
मानव शरीर विवेक-प्रधान है। मनुष्य जो कुछ करता है, उसे वह विचारपूर्वक ही करता है। वह ज्यों ही विचारपूर्वक काम करता है, त्यों ही विवेक ज्यादा स्पष्ट प्रकट होता है। सात्त्विक मनुष्य की धृति (धारण शक्ति) में यह विवेक साफ-साफ प्रकट होता है कि मुझे तो केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है। राजस मनुष्य की धृति में संसार के पदार्थों और भोगों में राग की प्रधानता होने के कारण विवेक वैसा स्पष्ट नहीं होता; फिर भी इस लोक में सुख-आराम, मान-आदर मिले और परलोक में अच्छी गति मिले, भोग मिले- इस विषय में विवेक काम करता है और आचरण भी मर्यादा के अनुसार ही होता है। परंतु तामस मनुष्य की धृति में विवेक बिलकुल ही दब जाता है। तामस भावों में उसकी इतनी दृढ़ता हो जाती है कि उन भावों को धारण करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। वह तो निद्रा, भय आदि तामसभावों ही रचा-पचा रहता है। पारमार्थिक मार्ग में क्रिया इतना काम नहीं करती जितना अपना उद्देश्य काम करता है। स्थूल क्रिया की प्रधानता स्थूलशरीर में, चिन्तन की प्रधानता सूक्ष्म शरीर में और स्थितरता की प्रधानता कारणशरीर में होती है, यह सब क्रिया ही है। ‘क्रिया तो शरीरों होती है, पर मेरे को तो केवल पारमार्थिक मार्ग पर ही चलना है’- ऐसा उद्देश्य या लक्ष्य स्वयं (चेतनस्वरूप) में ही रहता है। स्वयं में जैसा लक्ष्य होता है, उसके अनुसार स्वतः क्रियाएँ होती हैं। जो चीज स्वयं में रहती है, वह कभी बदलती नहीं। उस लक्ष्य की दृढ़ता के लिए सात्त्विकी बुद्धि की आवश्यकता है और बुद्धि के निश्चय को अटल रखने के लिए सात्त्विकी धृति की आवश्यकता है। इसलिए यहाँ तीसवें से पैतीसवें श्लोक तक कुल छः श्लोकों में छः बार ‘पार्थ’ संबंधोन का प्रयोग करके भगवान साधक मात्र के प्रतिनिधि अर्जुन को चेताते हैं कि ‘पृथानन्दन! लौकिक वस्तुओं और व्यक्तियों के लिए चिन्ता न करके तुम अपने लक्ष्य को दृढ़ता से धारण किए रहो। अपने में कभी भी राजस-तामसभाव न आने पायें- इसके लिए निरंतर सजग रहो!’ संबंध- मनुष्यों की कर्मों में प्रवृत्ति सुख के लोभ से ही होती है अर्थात सुखकर्म-संग्रह में हेतु है। अतः आगे के चार श्लोकों में सुख के भेद बताते हैं।
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