श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
प्रारब्ध कर्म से मिलने वाले फल के दो भेद हैं- प्राप्त फल और अप्राप्त फल। अभी प्राणियों के सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही है, वह ‘प्राप्त’ फल है और इसी जन्म में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में आने वाली है वह ‘अप्राप्त’ फल है। क्रियमाण कर्मों का जो फल-अंश संचित में जमा रहता है, वही प्रारब्ध बनकर अनुकूल, प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थिति के रूप में मनुष्य के सामने आता है। अतः जब तक संचित कर्म रहते हैं, तब तक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थिति के रूप में परिणत होता ही रहता है। यह परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी होने के लिए बाध्य नहीं करती। सुखी-दुःखी होने में तो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ संबंध जोड़ना ही मुख्य कारण है। परिस्थिति के साथ संबंध जोड़ना ही मुख्य कारण है।
परिस्थिति के साथ संबंध जोड़ने अथवा न जोड़ने में यह मनुष्य सर्वथा स्वाधीन है, पराधीन नहीं है। जो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ अपना संबंध मान लेता है, वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता है। परंतु जो परिस्थिति के साथ संबंध नहीं मानता, वह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होता; अतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्था में होती है, जो कि उसका स्वरूप है।
कर्मों में मनुष्य के प्रारब्ध की प्रधानता है या पुरुषार्थ की? अथवा प्रारब्ध बलवान है या पुरुषार्थ?- इस विषय में बहुत सी शंकाएँ हुआ करती हैं। उनके समाधान के लिए पहले यह समझ लेना जरूरी है कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ क्या है?
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