श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
पुरुष और प्रकृति- ये दो हैं। इनमें से पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति कभी परिवर्तन रहित नहीं होती। जब वह यह पुरुष प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता है, तब प्रकृति की क्रिया पुरुष का ‘कर्म’ बन जाती है; क्योंकि प्रकृति के साथ संबंध मानने से तादात्म्य हो जाता है। तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त हैं, उनमें ममता होती है और उस ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है। इस प्रकार जब तक कामना, ममता और तादात्म्य रहता है, तब तक जो कुछ परिवर्तन रूप क्रिया होती है, उसका नाम ‘कर्म’ है। तादात्म्य के टूटने पर वही कर्म पुरुष के लिए ‘अकर्म’ हो जाता है अर्थात वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उसमें फलजनकता नहीं रहती- यह ‘कर्म में अकर्म’ है। अकर्म अवस्था में अर्थात स्वरूप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है, वह ‘अकर्म में कर्म’ है।[1] तात्पर्य यह हुआ कि अपने निर्लिप्त स्वरूप का अनुभव न होने पर भी वास्तव में सब क्रियाएँ प्रकृति और उसके कार्य शरीर में होती हैं; परंतु प्रकृति या शरीर से अपनी पृथक्ता का अनुभव न होने से वे क्रियाएँ ‘कर्म’ बन जाती हैं।[2] कर्म तीन तरह के होते हैं- क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। अभी वर्तमान में जो कर्म किए जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’ कर्म कहलाते हैं।[3] वर्तमान से इस जन्म में किए हुए अथवा पहले के अनेक मनुष्य जन्मों में किए हुए जो कर्म संग्रहीत हैं, वे ‘संचित’ कर्म कहलाते हैं। संचित में से जो कर्म फल देने के लिए प्रस्तुत (उन्मुख) हो गए हैं अर्थात जन्म, आयु और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में परिणत होने के लिए सामने आ गए हैं, वे ‘प्रारब्ध’ कर्म कहलाते हैं। क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं- शुभ और अशुभ। जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किए जाते हैं, वे शुभकर्म कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति आदि को लेकर जो शास्त्र-निषिद्ध कर्म किए जाते हैं, वे अशुभकर्म कहलाते हैं। शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल-अंश बनता है और एक संस्कार-अंश। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 4:18
- ↑ गीता 3:27; 13।29
- ↑ जो भी नये कर्म और उनके संस्कार बनते हैं, वे सब केवल मनुष्यजन्म में ही बनते हैं (गीता 4:12; 15।2), पशु-पक्षी आदि योनियों में नहीं; क्योंकि वे योनियाँ केवल कर्मफल भोग के लिए ही मिलती है।
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