श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
इस विषय में एक और बात समझने की है कि कई दार्शनिक इस नाशवान संसार को असत् मानते हैं; क्योंकि यह पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा, इसलिए वर्तमान में यह नहीं है; जैसे- स्वप्न। कई दार्शनिकों का यह मत है कि संसार परिवर्तनशील है, हरदम बदलता रहता है, कभी एक रूप नहीं रहता; जैसे- अपना शरीर। कई यह मानते हैं कि परिवर्तनशील होने पर भी संसार का कभी अभाव नहीं होता, प्रत्युत तत्त्व से सदा रहता है; जैसे- जल (जल ही बर्फ, बादल, भाप और परमाणु रूप से हो जाता है, पर स्वरूप से वह मिटता नहीं)। इस तरह अनेक मतभेद हैं; किंतु नाशवान् जड का अपने अविनाशी चेतन-स्वरूप के साथ की संबंध नहीं है, इसमें किसी भी दार्शनिक का मतभेद नहीं है। ‘संग त्यक्त्वा’ पदों से भगवान ने उसी संबंध का त्याग कहा है। प्रकृति सत् है या असत् है अथवा सत्-असत् से विलक्षण है? अनादि-सांत है या अनादि-अनन्त है? इस झगड़े में पड़कर साधक को अपना अमूल्य समय खर्च नहीं करना चाहिए, प्रत्युत इस प्रकृति से तथा प्रकृति के कार्य शरीर-संसार से अपना संबंध-विच्छेद करना चाहिए, जो कि स्वतः हो ही रहा है। स्वतः होने वाले संबंध-विच्छेद का केवल अनुभव करना है कि शरीर तो प्रतिक्षण बदलता ही रहता है और स्वयं निर्विकार रूप से सदा ज्यों का त्यों रहता है। अब प्रश्न यह होता है कि फल क्या है? प्रारब्ध- कर्म के अनुसार अभी हमें जो परिस्थिति, वस्तु, देश, काल आदि प्राप्त हैं, वह सब कर्मों का ‘प्राप्त फल’ है और भविष्य में जो परिस्थिति, वस्तु आदि प्राप्त होने वाली है, वह सब कर्मों का ‘अप्राप्त फल’ है। प्राप्त तथा अप्राप्त फल में आसक्ति रहने के कारण ही प्राप्त में ममता और अप्राप्त की कामना होती है। इसलिए भगवान ने ‘त्यक्त्वा फलानि च’[1] कहकर फलों का त्याग करने की बात कही है। कर्मफल का त्याग क्यों करना चाहिए? क्योंकि कर्मफल हमारे साथ रहने वाला है ही नहीं। कारण यह है कि जिन कर्मों से फल बनता है, उन कर्मों का आरंभ और अंत होता है; अतः उनका फल भी प्राप्त और नष्ट होने वाला ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ ‘फलानि’ शब्दों में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि सकामभाव से कर्म करने वालों में बहुत से फलों की इच्छा होती है- ‘बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्’ (गीता 2:41)। वे इस लोक में सुख-आराम, मान-सम्मान, यश-प्रतिष्ठा आदि चाहते हैं और परलोक में स्वर्ग आदि की प्राप्ति चाहते हैं। भगवान के मत में इन सभी फलों की इच्छाओं का त्याग है।
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