श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
व्याख्या- ‘निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम’- हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! अब मैं संन्यास और त्याग- दोनों में से पहले त्याग के विषय में अपना मत कहता हूँ, उसको तुम सुनो। ‘त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः’- हे पुरुषव्याघ्र! त्याग तीन तरह का कहा गया है- सात्त्विक, राजस और तामस। वास्तव में भगवान के मत में सात्त्विक त्याग ही ‘त्याग’ है; परंतु उसके साथ राजस और तासम त्याग का भी वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि उनके बिना भगवान के अभीष्ट सात्त्विक त्याग की श्रेष्ठता स्पष्ट नहीं होती; क्योंकि परीक्षा या तुलना करके किसी भी वस्तु की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दूसरी वस्तुएँ सामने रखनी ही पड़ती हैं। तीन प्रकार का त्याग बताने का तात्पर्य यह भी है कि साधक सात्त्विक त्याग को ग्रहण करे और राजस तथा तामस त्याग का त्याग करे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस श्लोक के पूर्वार्ध की व्याख्या के रूप में भगवान ने पाँचवे और छठे श्लोक में अपना मत बताया है और उत्तरार्ध की व्याख्या के रूप में सातवें के नवें श्लोक तक तीन प्रकार के त्याग का वर्णन किया है। जिस प्रकार शरीर का विवेक सभी योगियों के लिये परम आवश्यक होने के कारण भगवान ने उसका वर्णन गीता में सबसे पहले (2।11-30में) किया है उसी प्रकार फल की कामना और कर्म की आसक्ति का त्याग सभी योगियों के लिये अत्यन्त आवश्यक होने के कारण यहाँ भगवान ‘त्याग’ का वर्णन सबसे पहले आरम्भ करते हैं।
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