श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये’[1] में आए ‘सांख्य’ पद को ही यहाँ ‘संन्यास’ पद से कहा गया है। भगवान ने भी सांख्य और संन्यास को पर्यायवाची माना है; जैसे- पाँचवें अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘संन्यासः’, चौथे श्लोक में ‘सांख्ययोगौ’, पाँचवें श्लोक में ‘यत्सांख्यैः’ और छठे श्लोक में ‘संन्यासस्तु’ पदों का एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ है। इसलिए यहाँ अर्जुन ने सांख्य को ही संन्यास कहा है। इसी प्रकार ‘बुद्धिर्योगे त्विमा श्रृणु’[2] में आये ‘योग’ पद को ही यहाँ ‘त्याग’ पद से कहा गया है। भगवान ने भी योग (कर्मयोग) और त्याग को पर्यायवाची माना है; जैसे- दूसरे अध्याय के अड़तालीसवें श्लोक में ‘संग त्यक्त्वा’ तथा इक्यावनवें श्लोक में ‘फलं त्यक्त्वा’, तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘कर्मयोगेन योगिनाम्’, चौथे अध्याय के बीसवें श्लोक में ‘त्यक्त्वा कर्मफलासंगम्’, पाँचवें अध्याय के चौथे श्लोक में ‘योगौ’, पाँचवें श्लोक में ‘तद्योगैरपि गम्यते’, ग्यारहवें श्लोक में ‘संग त्यक्त्वा’ तथा बारहवें श्लोक में ‘कर्मफलं त्यक्त्वा’, बारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में ‘त्यागात्’ पदों का एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ है। इसलिए यहाँ अर्जुन ने कर्मयोग को ही त्याग कहा है। अच्छी तरह से रखने का नाम ‘संन्यास’ है- ‘सम्यक् न्यासः संन्यासः।’ तात्पर्य है कि प्रकृति में देने (छोड़ देने) और विवेक द्वारा प्रकृति से अपना सर्वथा संबंध-विच्छेद कर लेने का नाम ‘संन्यास’ है। कर्म और फल की आसक्ति को छोड़ने का नाम ‘त्याग’ है। छठे अध्याय के चौथे श्लोक में आया है कि जो कर्म और फल में आसक्त नहीं होता, वह योगारूढ़ हो जाता है। संबंध- अर्जुन की जिज्ञासा के उत्तर में पहले भगवान आगे के दो श्लोकों में अन्य दार्शनिक विद्वानों के चार मत बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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