श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
‘तत्तामसमुदाहृतम्’- उपर्युक्त प्रकार से दिया जाने वाला दान तामस कहा गया है। शंका- गीता में तामस कर्म का फल अधोगति बताया है- ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’[1] और रामचरितमानस में बताया में बताया है कि जिस- किसी प्रकार से भी दिया हुआ दान कल्याण करता है- इन दोनों में विरोध आता है? समाधान- तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं- यह कानून दान के विषय में लागू नहीं होता। कारण कि धर्म के चार चरण हैं- ‘सत्यं दया तपो दानमिति’[3] इन चारों चरणों में कलियुग में एक ही चरण ‘दान’ है- ‘दानमेकं कलौ युगे’।[4] इसलिए गोस्वामी जी महाराज ने कहा- प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान । ऐसा कहने का तात्पर्य है कि किसी प्रकार भी दान दिया जाए, उसमें वस्तु आदि के साथ अपनेपन का त्याग करना ही पड़ता है। इस दृष्टि से तामस दान में भी आंशिक त्याग होने से दान देने वाला अधोगति के योग्य नहीं हो सकता। दूसरी बात, इस कलियुग के समय मनुष्यों का अंतःकरण बहुत मलिन हो रहा है। इसलिए कलियुग में एक छूट है कि जिस किसी प्रकार भी किया हुआ दान कल्याण करता है। इससे मनुष्य का दान करने का स्वभाव तो बन ही जाएगा, जो आगे कभी किसी जन्म में कल्याण भी कर सकता है। परंतु दान की क्रिया ही बंद हो जाएगी, तो फिर देने का स्वभाव बनने का कोई अवसर ही प्राप्त नहीं होगा। इसी दृष्टि से एक संत ने ‘श्रद्धया देयमश्रद्धयादेयम्’[6]- इस श्रुति की व्याख्या करते हुए कहा था कि इसमें पहले पद का अर्थ तो यह है कि श्रद्धा से देना चाहिए, पर दूसरे पद का अर्थ ‘अश्रद्धया अदेयम्’ (अश्रद्धा से नहीं देना चाहिए)- ऐसा न लेकर ‘अश्रद्धया देयम्’ (श्रद्धा न हो, तो भी देना चाहिए)- इस प्रकार लेना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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