श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- इस श्लोक में दान के दो विभाग हैं-
‘दातव्यमिति........ देशे काले च पात्रे च’- केवल देना ही मेरा कर्तव्य है। कारण कि मैंने वस्तुओं को स्वीकार किया है अर्थात उन्हें अपना माना है। जिसने वस्तुओं को स्वीकार किया है, उसी पर देने की जिम्मेवारी होती है। अतः देना मात्र मेरा कर्तव्य है- इस भाव से दान करना चाहिए। उसका यहाँ क्या फल होगा और परलोक में क्या फल होगा- यह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिए। ‘दातव्य’ का तात्पर्य ही त्याग में है। अब किसको दिया जाए? तो कहते हैं- ‘दीयतेऽनुपकारिणे’ अर्थात जिसने पहले कभी हमारा उपकार किया ही नहीं, अभी भी उपकार नहीं करता है और आगे हमारा उपकार करेगा, ऐसी संभावना भी नहीं है- ऐसे ‘अनुपकारी’ को निष्कामभाव से देना चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसने हमारा उपकार किया है, उसको न दे, प्रत्युत जिसने हमारा उपकार किया है, उसे देने में दान न माने। कारण कि केवल देनेमात्र से सच्चे उपकार का बदला नहीं चुकाया जा सकता। अतः ‘उपकारी’ की भी अवश्य सेवा-सहायता करनी चाहिए, पर उसको दान में भरती नहीं करना चाहिए। उपकार की आशा रखकर देने से वह दान राजसी हो जाता है। ‘देशे काले च पात्रे च’[1] पदों के दो अर्थ होते हैं- 1. जिस देश में जो चीज देना; जिस समय जिस चीज की आवश्यकता है, उस समय वह चीज देना; और जिसके पास जो चीज नहीं है और उसकी आवश्यकता है, उस अभावग्रस्त को वह चीज देना। ‘देशे काले च पात्र च’ पदों से उपर्युक्त दोनों ही अर्थ लेने चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ देश, काल और पात्र- तीनों में ‘यस्य च भावेन भावलक्षणम्’ इस सूत्र से सप्तमी की गयी है।
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