श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘एतैर्विमुक्तः कौन्तेय ततो याति परां गतिम्’- पूर्वश्लोक में जिनको नरक का दरवाजा बताया गया है, उन्हीं काम, क्रोध और लोभ को यहाँ ‘तमोद्वार’ कहा गया है। ‘तम्’ नाम अंधकार का है, जो अज्ञान से उत्पन्न होता है- ‘तमस्त्वज्ञानजं विद्धि’।[1] तात्पर्य है कि इन काम आदि के कारण ‘मेरे साथ वे धन-संपत्ति, स्त्री-पुरुष, घर-परिवार आदि पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे और अब भी इनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है; अतः इनमें ममता करने से आगे मेरी क्या दशा होगी’ आदि बातों की तरफ दृष्टि जाती ही नहीं अर्थात बुद्धि में अंधकार छाया रहता है। अतः इन काम आदि से मुक्त होकर जो अपने कल्याण आचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। इसलिए साधक को इस बात की विशेष सावधानी रखनी चाहिए कि वह काम, क्रोध और लोभ- तीनों से सावधान रहे। कारण कि इन तीनों को साथ में रखते हुए जो साधन करता है, वह वास्तव में असली साधक नहीं है। असली साधक वह होता है जो दोषों को अपने साथ रहने ही नहीं देता। ये दोष उसको हर समय खटकते रहते हैं; क्योंकि इनको साथ में रहने का अवसर देना ही बड़ी भारी गलती है। मनुष्य साधन की तरफ तो ध्यान देते हैं, पर साथ में जो काम क्रोधादि दोष रहते हैं, उनसे हमारा कितना अहित होता है- इस तरफ वे ध्यान कम देते हैं। इस कमी के कारण ही साधन करते हुए सदाचार भी होते रहते हैं और दुराचार भी होते रहते हैं; सद्गुण भी आते हैं और दुर्गुण भी साथ रहते हैं। जप, ध्यान, कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय, तीर्थ, व्रत आदि करके हम अपने को शुद्ध बना लेंगे- ऐसा भाव साधक में विशेष रहता है, परंतु जो हमें अशुद्ध कर रहे हैं, उन दुर्गुण-दुराचारों को हटाने का खयाल साधक में कम रहता है, इसलिए-
नींद खुलने से लेकर नींद आने तक और जिस दिन पता लगे, उस दिन से लेकर मौत आने तक- सब का सब समय परमात्मतत्त्व के (सगुण-निर्गुण के) चिन्तन में ही लगाए। चिन्तन के सिवाय काम आदि को किञ्चिन्मात्र भी अवसर न दें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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