श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
अब प्रश्र यह होता है कि मनुष्य मुक्ति के लिये क्या करे? उत्तर यह है कि जैसे बीज को भून दिया जाय या उबाल दिया जाय, तो यह बीज अंकुर नहीं देगा।[1] उस बीज को बोया जाय तो पृथ्वी उसकी अपने साथ मिला लेगी। फिर यह पता ही नहीं चलेगा कि बीज था या नहीं ऐसे ही मनुष्य का जब दृढ़ निश्चय हो जाएगा कि मुझे केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है, तो संसार के सब बीज संस्कार अहंता में से नष्ट हो जायँगे। शरीर प्राणों में एक प्रकार की आसक्ति होती है कि मै सुखपूर्वक जीता रहूँ मेरे को मान बड़ाई मिलती रहे मैं भोग भोगता रहूँ आदि इस प्रकार जो व्यक्ति को रखकर चलते है उनमे अच्छे गुण आने पर भी आसक्ति के कारण उनकी मुक्ति नहीं हो सकती क्योकि ऊंच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण प्रकृति का सम्बध ही है[2] तात्पर्य यह है कि जिसने प्रकृति से अपना सम्बन्ध जोड़ा हुआ है, वह शुभ कर्म करके ब्रह्मलोक तक भी चला जाय तो भी वह बन्धन ही रहेगा। भगवान इस अध्याय में आसुरी सम्पदायक के तीन फल बताये हैं, जिनमें से इस श्लोक में 'निबन्धयासुरी मता' पदों से बन्धनरुप सामान्य फल बताया है। दूसरे अध्याय के इकतालीसवें से चौवालीसवें श्लोक में वर्णित सकाम उपासक भी इसी में आ जाते हैं। जिनका उद्देश्य केवल भोग भोगना और संग्रह करना है ऐसे मनुष्यों की बहुत शाखाओं वाली अनत बुद्धियाँ होती है, ऐसे मनुष्यों की बहुत कामनाओं का कोई अंत नहीं होता जो कामनाओं तमन्य है और कर्म फल के प्रशंसक वेदवाक्यों मे ही प्रीति रखते हैं वे वैदिक यज्ञादि को विधि विधान से करते हैं पर कामनाओं के कारण उनको जन्म मरण रुप बन्धन होता है।[3] ऐसे ही जो यहाँ के भोगों की कामना से शास्त्रविहित यज्ञ फलस्वरूप (स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप नष्ट होने से) स्वर्ग में जाकर दिव्य भोग भोगते हैं। जब उनके (स्वर्ग देने वाले) पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब वे वहाँ से लौटकर आवागमन को प्राप्त हो जाते हैं।[4] अब यहाँ शंका यह होती है कि जिस कृष्णमार्ग[5] से उपयुक्त सकाम पुरुष[6] भी जाते है; अत: दोनो का मार्ग एक होने से और दोनो पुनरावर्ती होने से सकाम पुरुषो के समान योग भ्रष्ट पुरुषों को भी निबन्धायासुरी मता बाला बन्धन होना चाहिए। इसका समाधान यह है कि योगभ्रष्टों को यह बंधन नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भर्जिता कथिता धाना प्रायो बाजाय नेष्यते॥ (श्रीमद 10।22।26)
- ↑ गीता 13:21
- ↑ गीता 2।41-44
- ↑ गीता 9।20-21
- ↑ गीता 8:25
- ↑ गीत 6:41
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