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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘अद्रोहः’- बिना कारण अनिष्ट करने वाले के प्रति भी अंतःकरण में बदला लेने की भावना का न होना ‘अद्रोह’[1] है। साधारण व्यक्ति का कोई अनिष्ट करता है, तो उसके मन में अनिष्ट करने वाले के प्रति द्वेष की एक गाँठ बँध जाती है कि मौका पड़ने पर मैं इसका बदला ले ही लूँगा; किंतु जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का है, उस साधक का कोई कितना ही अनिष्ट क्यों न करे, उसके मन में अनिष्ट करने वाले के प्रति बदला लेने की भावना ही पैदा नहीं होती। कारण कि कर्मयोग का साधक सबके हित के लिए कर्तव्य कर्म करता है, ज्ञानयोग का साधक सबको अपना स्वरूप समझता है और भक्तियोग का साधक सबमें अपने इष्ट भगवान को समझता है। अतः वह किसी के प्रति कैसे द्रोह कर सकता है।
निज प्रभुमय देखहिं जगत् केहि सन करहिं बिरोध ।।[2]
‘नातिमानिता’- एक ‘मानिता’ होती है और एक ‘अतिमानिता’ होती है। सामान्य व्यक्तियों से मान चाहना ‘मानिता’ है और जिनसे हमने शिक्षा प्राप्त की, जिनका आदर्श ग्रहण किया और ग्रहण करना चाहते हैं, उनसे भी अपना मान, आदर-सत्कार चाहना ‘अतिमानिता’ है। इन मानिता और अतिमानिता का न होना ‘नातिमानिता’ है।
स्थूल दृष्टि से ‘मानिता’ के दो भेद होते हैं-
- सांसारिक मानिता- धन, विद्या, गुण, बुद्धि, योग्यता, अधिकार, पद, वर्ण, आश्रम आदि को लेकर दूसरों की अपेक्षा अपने में एक श्रेष्ठता का भाव होता है कि ‘मैं साधारण मनुष्यों की तरह थोड़े ही हूँ, मेरा कितने लोग आदर-सत्कार करते हैं! वे आदर करते हैं तो यह ठीक ही है; क्योंकि मैं आदर पाने योग्य ही हूँ’- इस प्रकार अपने प्रति जो मान्यता होती है, वह सांसारिक मानिता कहलाती है।
- पारमार्थिक मानिता- प्रारंभिक साधन काल में जब अपने में कुछ दैवी-संपत्ति प्रकट होने लगती है, तब साधक को दूसरों की अपेक्षा अपने में कुछ विशेषता दीखती है। साथ ही दूसरे लोग भी उसे परमात्मा की ओर चलने वाला साधक मानकर उसका विशेष आदर करते हैं और साथ ही साथ ‘ये साधन करने वाले हैं, अच्छे सज्जन हैं’- ऐसी प्रशंसा भी करते हैं। इससे साधक को अपने में विशेषता मालूम देती है, पर वास्तव में यह विशेषता अपने साधन में कमी होने के कारण ही दीखती है। यह विशेषता दीखना पारमार्थिक मानिता है।
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