श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
(2) संत-महात्माओं की दया- संत-महात्मा लोग दूसरों के दुःख से दुःखी और दूसरों के सुख से सुखी होते हैं- ‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर’।[1] पर वास्तव में उनके भीतर न दूसरों के दुःख से दुःख होता है और न अपने दुःख से ही दुःख होता है। अपने पर प्रतिकूल परिस्थिति आने पर वे उसमें भगवान की कृपा को देखते हैं पर दूसरों पर दुःख आने पर उन्हें सुखी करने के लिए वे उनके दुःख को स्वयं अपने पर ले लेते हैं। जैसे, इंद्र ने क्रोधपूर्वक बिना अपराध के दधीचि ऋषि का सिर काट दिया था, पर जब इंद्र ने अपनी रक्षा के लिए उनकी हड्डियाँ माँगी, तब दधीचि ने सहर्ष प्राण छोड़कर उन्हें अपनी हड्डियाँ दे दीं। इस प्रकार संत-महापुरुष दूसरे के दुःख को सह नहीं सकते, प्रत्युत उन्हें सुख पहुँचाने के लिए अपनी सुख-सामग्री और प्राण तक दे देते हैं, चाहे दूसरा उनका अहित करने वाला ही क्यों न हो![2] इसलिए संत-महात्माओं की दया विशेष शुद्ध, निर्मल होती है। (3) साधकों की दया- साधक अपने मन में दूसरों का दुःख दूर करने की भावना रखना चाहता है और उसके अनुसार उनका दुःख दूर करने की चेष्टा भी करता है। दूसरों को दुःखी देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है; क्योंकि वह अपनी ही तरह दूसरों के दुःख को भी समझता है। इसलिए उसका यह भाव रहता है कि सब सुखी कैसे हों? सबका भला कैसे हो? सबका उद्धार कैसे हो? सबका हित कैसे हो? अपनी ओर से वह ऐसी ही चेष्टा करता है; परंतु मैं सबका हित करता हूँ, सबके हित की चेष्टा करता हूँ- इन बातों को लेकर उसके मन में अभिमान नहीं होता। कारण कि दूसरों का दुःख दूर करने का सहज स्वभाव बन जाने से उसके अपने आचरण में कोई विशेषता नहीं दीखती। इसलिए उसको अभिमान नहीं होता। जो प्राणी भगवान की ओर नहीं चलते, दुर्गुण-दुराचरों में रत रहते हैं, दूसरों का अपराध करते हैं और अपना पतन करते हैं- ऐसे मनुष्यों पर साधक को क्रोध न आकर दया आती है। इसलिए वह हरदम ऐसी चेष्टा करता रहता है कि ये लोग दुर्गुण-दुराचारों से ऊपर कैसे उठें? इनका भला कैसे हो? कभी-कभी वह उनके दोषों को दूर करने में अपने को निर्बल मानकर भगवान से प्रार्थना करता है कि ‘हे नाथ! ये लोग इन दोषों से छूट जाएँ और आपके भक्त बन जाए।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 7।38।1
- ↑ कर्णस्त्वचं शिबिर्मासं जीवं जीमूतवाहनः। ददौ दधीरस्थीनि नास्त्यदेयं महात्मनाम् ।।
‘कर्ण ने अपनी त्वचा, शिबि ने अपना मांस और दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दे दीं। बादल अपना जीवन दे देते हैं। सच है, महात्माओं के लिए (परहित के लिए) कुछ भी अदेय नहीं है।’
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