श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
विशेष बात श्रोत का वाणी से, नेत्र का पैर से, त्वचा का हाथ से, रसना का उपस्थ से और घ्राण का गुदा से (पाँचों ज्ञानेंद्रियों का पाँचों कर्मेंद्रियों से) घनिष्ठ संबंध है। जैसे, जो जन्म से बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है। पैर के तलवे में तेल की मालिश करने से नेत्रों पर तेल का असर पड़ता है। त्वचा के होने से ही हाथ स्पर्श का काम करते हैं। रसनेन्द्रिय के वश में होने से उपस्थेन्द्रिय भी वश में हो जाती है। घ्राण से गंध का ग्रहण तथा उससे संबंधित गुदा से गंध का त्याग होता है। पञ्चमहाभूतों में एक-एक महाभूत के सत्त्वगुण-अंश से ज्ञानेंद्रियाँ, रजोगुण-अंश से कर्मेंद्रियाँ और तमोगुण-अंश से शब्दादि पाँचों विषय बने हैं।
पाँचों महाभूतों के मिले हुए सत्त्वगुण-अंश से मन और बुद्धि, रजोगुण-अंश से प्राण और तमोगुण-अंश से शरीर बना है। ‘विषयानुपसेवते’- जैसे व्यापारी किसी कारणवश एक जगह से दुकान उठाकर दूसरी जगह दुकान लगाता है, ऐसे ही जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है; और जैसे पहले शरीर में विषयों का रागपूर्वक सेवन करता था ऐसे ही दूसरे शरीर में जाने पर (वही स्वभाव होने से) विषयों का सेवन करने लगता है। इस प्रकार जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्ति करने के कारण ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। भगवान ने यह मनुष्य शरीर अपना उद्धार करने के लिए दिया है, सुख-दुःख भोगने के लिए नहीं। जैसे ब्राह्मण को गाय दान करने पर हम उसको चारा-पानी तो दे सकते हैं, पर दी गई गाय का दूध पीने का हमें हक नहीं है; ऐसे ही मिले हुए शरीर का सदुपयोग करना हमारा कर्तव्य है, पर इसे अपना मानकर सुख भोगने का हमें हक नहीं है। विशेष बात विषय-सेवन करने से परिणाम में विषयों में राग-आसक्ति ही बढ़ती है, जो कि पुनर्जन्म तथा संपूर्ण दुःखों का कारण है। विषयों में वस्तुतः सुख है भी नहीं। केवल आरंभ में भ्रमवश सुख प्रतीत होता है।[1] अगर विषयों में सुख होता है तो जिनके पास प्रचुर भोग-सामग्री है, ऐसे बड़े-बड़े धनी, भोगी और पदाधिकारी तो सुखी हो ही जाते, पर वास्तव में देखा जाए तो पता चलता है कि वे भी दुःखी, अशांत ही हैं। कारण यह है कि भोग-पदार्थों में सुख है ही नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। सुख लेने की इच्छा से जो-जो भोग भोगे गए, उन-उन भोगों से धैर्य नष्ट हुआ, ध्यान नष्ट हुआ, रोग पैदा हुए, चिन्ता हुई, व्यग्रता हुई, पश्चाताप हुआ, बेइज्जती हुई, बल गया, धन गया, शक्ति गयी एवं प्रायः दुःख-शोक-उद्वेग आये- ऐसा यह परिणाम विचारशील व्यक्ति के प्रत्यक्ष देखने में आता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18:38
- ↑ भोगा न भुक्ता वद्यमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। ‘हमने भोगों को नहीं भोगा, भोगों ने ही हमें भोग लिया; हमने तप नहीं किया, हम ही तप्त हो गए; काल व्यतीत नहीं हुआ, हम ही व्यतीत हो गए; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, हम ही जीर्ण हो गए।’
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