श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
प्राणिमात्र का यह स्वभाव है कि वह उसी का आश्रय लेना चाहता है और उसी की प्राप्ति में जीवन लगा देना चाहता है, जिसको वह सबसे बढ़कर मानता है अथवा जिससे उसे कुछ प्राप्त होने की आशा रहती है। जैसे संसार में लोग रुपयों को प्राप्त करने में और उनका संग्रह करने में बड़ी तत्परता से लगते हैं, क्योंकि उनको रुपयों से संपूर्ण मनचाही वस्तुओं के मिलने की आशा रहती है। वे सोचते हैं- ‘शरीर के निर्वाह की वस्तुएँ तो रुपयों से मिलती ही हैं, अनेक तरह के भोग, ऐश-आराम के साधन भी रुपयों से प्राप्त होते हैं। इसलिए रुपए मिलने पर मैं सुखी हो जाऊँगा तथा लोग मुझे धनी मानकर मेरा बहुत मान-आदर करेंगे।’ इस प्रकार रुपयों की सर्वोपरि मान लेने पर वे लोभ के कारण अन्याय, पाप की भी परवाह नहीं करते। यहाँ तक कि वे शरीर के आराम की भी अपेक्षा करके रुपए कमाने तथा संग्रह करने में ही तत्पर रहते हैं। उनकी दृष्टि में रुपयों से बढ़कर कुच नहीं रहता। इसी प्रकार जब साधक को यह ज्ञात हो जाता है कि परमात्मा से बढ़कर कुछ भी नहीं है और उनकी प्राप्ति में ऐसा आनंद है, जहाँ संसार के सब सुख फीके पड़ जाते हैं[2], तब वह परमात्मा को ही प्राप्त करने के लिए तत्परता से लग जाता है।[3] ‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये’- जिसका कोई आदि नहीं है; किंतु जो सबका आदि है[4], उस आदि पुरुष परमात्मा का ही आश्रय (सहारा) लेना चाहिए। परमात्मा के सिवाय अन्य कोई श्री आश्रय टिकने वाला नहीं है। अन्य का आश्रय वास्तव में आश्रय ही नहीं है, प्रत्युत वह आश्रय लेने वाले का ही नाश (पतन) करने वाला है; जैसे- समुद्र में डूबते हुए व्यक्ति के लिए मगरमच्छ का आश्रय! इस मृत्यु-संसार-सागर के सभी आश्रय मगरमच्छ के आश्रय की तरह ही हैं। अतः मनुष्य को विनाशी संसार का आश्रय न लेकर अविनाशी परमात्मा का ही आश्रय लेना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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