श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
‘यह’- (इदम्) रूप से जानने में आने वाले स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसहित संपूर्ण संसार को जानने वाला ‘मैं’, (अहम्) कहलाता है। ‘यह, (जानने में आने वाला दृश्य) और ‘मैं’ (जानने वाला द्रष्टा) कभी एक नहीं हो सकते- यह नियम है। इस प्रकार संसार और शरीर नष्ट होने वाले हैं और मैं (स्वयं) अविनाशी है- इस विवेक का आदर करते हुए अपने-आपको संसार और शरीर से सर्वथा अलग अनुभव करना ही असंग-शस्त्र के द्वारा संसारवृक्ष का छेदन करना है। इस विवेक को महत्त्व न देने के कारण ही संसार दृढ़ मूलों वाला प्रतीत होता है। सांसारिक वस्तुओं का अत्यंताभाव अर्थात सर्वथा नाश तो नहीं हो सकता, पर उनमें राग का सर्वथा अभाव हो सकता है। अतः ‘छेदन’ का तात्पर्य सांसारिक वस्तुओं का नाश करना नहीं, प्रत्युत उनसे अपना राग हटा लेना है। संसार से संबंध-विच्छेद होने पर संसार का अपने लिए सर्वथा अभाव हो जाता है, जिसे ‘आत्यन्तिक प्रलय’ भी कहते हैं। जो हमारा स्वरूप नहीं है तथा जिसके साथ हमारा वास्तविक संबंध नहीं है, उसी का त्याग (छेदन) होता है। हम स्वरूपतः चेतन और अविनाशी हैं एवं संसार जड और विनाशी है; अतः संसार से हमारा संबंध अवास्तविक और भूल से माना हुआ है। स्वरूप से हम संसार से असंग ही हैं। पहले से ही जो असंग है, वही असंग होता है- यह नियम है। अतः संसार से हमारी असंगता स्वतः सिद्ध है- इस वास्तविकता को दृढ़ता से मान लेना चाहिए। संसार कितना ही सुविरूढ़मूल क्यों न हो, उसके साथ अपना संबंध न मानने से वह स्वतः कट जाता है; क्योंकि संसार के साथ अपना संबंध है नहीं, केवल माना हुआ है। अतः संसार के साथ अपना संबंध न मानने से उसका छेदन हो जाता है- इसमें साधक को संदेह नहीं करना चाहिए; चाहे (आरंभ में) व्यवहार में ऐसा दिखाई दे या न दे। जीव ने अपनी भूल से शरीर-संसार से संबंध माना था। इसलिए इसका छेदन करने की जिम्मेवारी भी जीव पर ही है। अतः भगवान इसे ही छेदन करने के लिए कह रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ।।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज