श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते । अर्थ-जब इस मनुष्यशरीर में सब द्वारों (इंद्रियों और अंतःकरण) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है। व्याख्या- ‘सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्.....ज्ञानं यदा’- जिस समय रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है, उस समय संपूर्ण इंद्रियों में तथा अंतःकरण में स्वच्छता, निर्मलता प्रकट हो जाती है। जैसे सूर्य के प्रकाश में सब वस्तुएं साफ-साफ दीखती हैं, ऐसे ही स्वच्छ बहिःकरण और अंतःकरण से शब्दादि पाँचों विषयों का यथार्थरूप से ज्ञान होता है। मन से किसी भी विषय का ठीक-ठीक मनन-चिन्तन होता है। इन्द्रियों और अंतःकरण में स्वच्छता, निर्मलता होने से ‘सत् क्या है’ कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है? लाभ किसमें है और हानि किसमें है? हित किसमें है और अहित किसमें है?’ आदि बातों का स्पष्टतया ज्ञान (विवेक) हो जाता है। यहाँ ‘देहेऽस्मिन्’ कहने का तात्पर्य है कि सत्त्वगुण के बढ़ने का अर्थात बहिःकरण और अंतःकरण में स्वच्छता, निर्मलता और विवेकशक्ति प्रकट होने का अवसर इस मनुष्य-शरीर में ही है, अन्य शरीरों में नहीं। भगवान ने तमोगुण से बँधने वालों के लिए ‘सर्वदेहिनाम्’[1] पद का प्रयोग किया है, जिसका तात्पर्य है कि रजोगुण-तमोगुण तो अन्य शरीरों में भी बढ़ते हैं, पर सत्त्वगुण मनुष्य शरीर में ही बढ़ सकता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह रजोगुण और तमोगुण पर विजय प्राप्त करके सत्त्वगुण से भी ऊँचा उठे। इसी में मनुष्य जीवन की सफलता है। भगवान ने कृपापूर्वक मनुष्य शरीर देकर इन तीनों गुणों पर विजय प्राप्त करने का पूरा अवसर, अधिकार, योग्यता, सामर्थ्य, स्वतंत्रता दी है। ‘तदा विद्याद् विवृद्धं सत्त्वमित्युत’- इंद्रियों और अंतःकरण में स्वच्छता और विवेकशक्ति आने पर साधक को यह जानना चाहिए कि अभी सत्त्वगुण की वृत्तियाँ बढ़ी हुई हैं और रजोगुण-तमोगुण की वृत्तियाँ दबी हुई हैं। अतः साधक कभी भी अपने में यह अभिमान न करे कि ‘मैं जानकार हो गया हूँ, ज्ञानी हो गया हूँ’ अर्थात वह सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश और ज्ञान को अपना गुण न माने, प्रत्युत सत्त्वगुण का ही कार्य, लक्षण माने। यहाँ ‘इति विद्यात्’ पदों का तात्पर्य है कि तीनों गुणों की वृत्तियों का पैदा होना, बढ़ना और एक गुण की प्रधानता होने पर दूसरे दो गुणों का दबना आदि-आदि परिवर्तन गुणों में ही होते हैं, स्वरूप में नहीं- इस बात को मनुष्य शरीर में ही ठीक तरह से समझा जा सकता है। परंतु मनुष्य भगवान के दिए विवेक को महत्त्व न देकर गुणों के साथ संबंध जोड़ लेता है और अपने को सात्त्विक, राजस या तामस मानने लगता है। मनुष्य को चाहिए कि अपने को ऐसा न मानकर सर्वथा निर्विकार, अपरिवर्तनशील जाने। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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