श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘पर्युपासते’- साधक भक्तों की दृष्टि में भगवान के प्यार सिद्ध भक्त अत्यंत श्रद्धास्पद होते हैं। भगवान की तरफ स्वाभाविक आकर्षण (प्रियता) होने के कारण उनमें दैवी संपत्ति अर्थात सद्गुण (भगवान के होने से) स्वाभाविक ही आ जाते हैं। फिर भी साधकों का उन सिद्ध महापुरुषों के गुणों के प्रति स्वाभाविक आदरभाव होता है; और वे उन गुणों को अपने में उतारने की चेष्टा करते हैं। यही साधक भक्तों द्वारा उन गुणों का अच्छी तरह से सेवन करना, उनको अपनाना है। इसी अध्याय के तेरहवें से उन्नीसवें श्लोक तक, सात श्लोकों में ‘धर्म्यामृत’ का जिस रूप में वर्णन किया गया है, उसका ठीक उसी रूप में श्रद्धापूर्वक अच्छी तरह सेवन करने के अर्थ में उसी रूप में श्रद्धापूर्वक अच्छी तरह सेवन करने के अर्थ में यहाँ ‘पर्युपासते’ पद प्रयुक्त हुआ है। अच्छी तरह सेवन करने का तात्पर्य यही है कि साधक में किञ्चिन्मात्र भी अवगुण नहीं रहने चाहिए। जैसे, साधक में संपूर्ण प्राणियों के प्रति करुणा का भाव पूर्ण रूप से भले ही न हो, पर उसमें किसी प्राणी के प्रति अकरुणा (निर्दयता) का भाव बिलकुल भी नहीं रहना चाहिए। साधकों में ये लक्षण सांगोपांग नहीं होते, इसलिए उनसे इनका सेवन करने के लिए कहा गया है। सांगोपांग लक्षण होने पर वे सिद्ध की कोटि में आ जाएंगे। साधक में भगवत्प्राप्ति की तीव्र उत्कण्ठा और व्याकुलता होने पर उसके अवगुण अपने-आप नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि उत्कण्ठा और व्याकुलता अवगुणों को खा जाती है तथा उसके द्वारा साधन भी अपने आप होने लगता है। इस कारण उसको भगवत्प्राप्ति जल्दी और सुगमता से हो जाती है। ‘भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः’- भक्तिमार्ग पर चलने वाले भगवदाश्रित साधकों के लिए यहाँ ‘भक्ताः’ पद प्रयुक्त हुआ है। भगवान ने ग्यारहवें अध्याय के तिरपनवें श्लोक में वेदाध्यायन, तप, दान, यज्ञ आदि से अपने दर्शन की दुर्लभता बताकर चौवनवें श्लोक में अनन्य भक्ति से अपने दर्शन का सुलभता का वर्णन किया। फिर पचपनवें श्लोक में अपने भक्त के लक्षणों के रूप में अनन्यभक्ति के स्वरूप का वर्णन किया। इस पर अर्जुन ने इसी (बारहवें) अध्याय के पहले श्लोक में यह प्रश्न किया कि सगुण-साकार के उपासकों और निर्गुण-निराकार के उपासकों में श्रेष्ठ कौन है? भगवान ने दूसरे श्लोक में इस प्रश्न के उत्तर में (सगुण-साकार की उपासना करने वाले) उन साधकों को श्रेष्ठ बताया, जो भगवान में मन लगाकर अत्यंत श्रद्धापूर्वक उनकी उपासना करते हैं। यहाँ उपसंहार में उन्हीं साधकों के लिए ‘भक्ताः’ पद आया है। |
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