श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अर्थ- अव्यक्त में आसक्त चित्त वाले उन साधकों को (अपने साधन में) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनता से प्राप्त की जाती है। व्याख्या- ‘क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्’- अव्यक्त में आसक्त चित्त वाले- इस विशेषण से यहाँ उन साधकों की बात कही गयी है, जो निर्गुण-उपासना को श्रेष्ठ तो मानते हैं, पर जिनका चित्त-निर्गुण तत्त्व में आविष्ट नहीं हुआ है। तत्त्व में आविष्ट होने के लिए साधक में तीन बातों की आवश्यकता होती है- रुचि, विश्वास और योग्यता। शास्त्रों और गुरुजनों के द्वारा निर्गुण-तत्त्व की महिमा सुनने से जिनकी[1] उसमें कुछ रुचि तो पैदा हो जाती है और वे विश्वासपूर्वक साधन आरंभ भी कर देते हैं; परंतु वैराग्य की कमी और देहाभिमान के कारण जिनका चित्त तत्त्व में प्रविष्ट नहीं होता- ऐसे साधकों के लिए यहाँ ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद का प्रयोग हुआ है। भगवान ने छठे अध्याय के सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकों में बताया है कि ‘ब्रह्मभूत’ अर्थात ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित साधक को सुखपूर्वक ब्रह्म की प्राप्ति होती है। परंतु यहाँ इस श्लोक में ‘क्लेश अधिकतरः’ पदों से यह स्पष्ट किया है कि इन साधकों का चित्त ब्रह्मभूत साधकों की तरह निर्गुण-तत्त्व में सर्वथा तल्लीन नहीं हो पाया है। अतः उन्हें अव्यक्त में ‘आविष्ट’ चित्त वाला न कहकर ‘आसक्त’ चित्त वाला कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इन साधकों की आसक्ति तो देह में होती है, पर अव्यक्त की महिमा सुनकर वे निर्गुणोपासना को ही श्रेष्ठ मानकर उसमें आसक्त हो जाते हैं; जबकि आसक्ति देह में ही हुआ करती है, अव्यक्त में नहीं। तेरहवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘अव्यक्तम्’ पद प्रकृति के अर्थ में आया है तथा और भी कई जगह वह प्रकृति के लिए ही प्रयुक्त हुआ है; परंतु यहाँ ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद में ‘अव्यक्त’ का अर्थ प्रकृति नहीं, प्रत्युत निर्गुण-निराकार ब्रह्म है। कारण यह है कि इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने ‘त्वाम्’ पद से सगुण-साकार स्वरूप के और ‘अव्यक्तम्’ पद से निर्गुण-निराकार स्वरूप के विषय में ही प्रश्न किया है। उपासना का विषय भी परमात्मा ही है, न कि प्रकृति; क्योंकि प्रकृति और प्रकृति का कार्य तो त्याज्य है। इसलिए उसी प्रश्न के उत्तर में भगवान ने ‘अव्यक्त’ पद का (व्यक्त रूप के विपरीत) निर्गुण-निराकार स्वरूप के अर्थ में ही प्रयोग किया है। अतः यहाँ प्रकृति का प्रसंग न होने के कारण ‘अव्यक्त’ पद का अर्थ प्रकृति नहीं लिया जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निराकार में आसक्त चित्तवाला होने और निर्गुण-उपासना को श्रेष्ठ मानने के कारण
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