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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
इस श्लोक में जो दुर्लभता बतायी गयी है, वह चतुर्भुज रूप के लिए ही बतायी गयी है, विश्वरूप के लिए नहीं। अगर इसको विश्वरूप के लिए ही मान लिया जाए तो पुनरुक्ति-दोष आ जाएगा; क्योंकि पहले अड़तालीसवें श्लोक में विश्वरूप की दुर्लभता बतायी जा चुकी है। दूसरी बात, आगे के श्लोक में भगवान ने अनन्यभक्ति से अपने को देखा जाना शक्य बताया है। विश्वरूप में अनन्यभक्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि अर्जुन- जैसे शूरवीर पुरुष भगवान से दिव्यदृष्टि प्राप्त करके भी विश्वरूप को देखकर भयभीत हो गये, तो उस रूप में अनन्यभक्ति, अनन्यप्रेम, आकर्षण कैसे हो सकता है? अर्थात नहीं हो सकता।
संबंध- जब कोई किसी साधन से, किसी योग्यता से, किसी सामग्री से आपको प्राप्त नहीं कर सकता, तो फिर आप कैसे प्राप्त किये जाते हैं- इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं।
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