श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचदश अध्याय
उत्तर- ‘तत्’ पद यहाँ उसी अविनाशी पद के नाम से कहे जाने वाले पूर्ण ब्रह्म पुरुषोत्तम का वाचक है; तथा सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि उसे प्रकाशित नहीं कर सकते -इस कथन से उसकी अप्रेमयता, अचिन्त्यता और अनिर्वचनीयता का निर्देश किया गया है। अभिप्राय यह है कि समस्त संसार को प्रकाशित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि एवं ये जिनके देवता हैं- वे चक्षु, मन और वाणी कोई भी उस परमपद को प्रकाशित नहीं कर सकते। इससे यह भी समझ लेना चाहिये कि इसके अतिरिक्त और भी जितने प्रकाशक तत्त्व माने गये हैं, उनमें से भी कोई या सब मिलकर भी उस परमपद को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं हैं; क्योंकि ये सब उसी के प्रकाश से- उसी की सत्ता-स्फूर्ति के किसी अंश से स्वयं प्रकाशित होते हैं।[1] यही सर्वथा युक्तियुक्त भी है, अपने प्रकाशक को कोई कैसे प्रकाशित कर सकते हैं, जिस नेत्र, वाणी या मन आदि किसी की वहाँ पहुँच भी नहीं है, वे उसका वर्णन कैसे कर सकते हैं। श्रुति में भी कहा है- ‘जहाँ से मन के सहित वाणी उसे प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, वह पूर्णब्रह्म परमात्मा है।’ अतएव वह अविनाशी पद वाणी और मन आदि से अत्यन्त ही अतीत है; उसका स्वरूप किसी प्रकार भी बतलाया या समझाया नहीं जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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