श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
उत्तर- जो नित्यधर्म है, बारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में जिस धर्म को ‘धर्म्यामृत’ नाम दिया गया है तथा इस प्रकरण में जो गुणातीत के लक्षणों के नाम से वर्णित हुआ है- उसका वाचक यहाँ ‘शाश्वतस्य’ विशेषण के सहित ‘धर्मस्य’ पद है। ऐसे धर्म की प्रतिष्ठा अपने को बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वह मेरी प्राप्ति में हेतु होने के कारण मेरा ही स्वरूप है; क्योंकि इस धर्म का आचरण करने वाला किसी अन्य फल को न पाकर मुझको ही प्राप्त होता है। प्रश्न- ‘ऐकान्तिकस्य’ विशेषण के सहित ‘सुखस्य’ पद किसका वाचक है और उसकी प्रतिष्ठा अपने को बतलाने का क्या अभिप्राय है। उत्तर- पाँचवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में जो ‘अक्षय सुख’ के नाम से, छठे अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में ‘आत्यन्तिक’ सुख के नाम से और अट्ठाईसवें श्लोक में ‘अत्यन्त सुख’ के नाम से कहा गया है- उसी नित्य परमानन्द का वाचक यहाँ ‘ऐकान्तिकस्य’ विशेषण के सहित ‘सुखस्य’ पद है। उसकी प्रतिष्ठा अपने को बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वह नित्य परमानन्द मेरा ही स्वरूप है, मुझसे भिन्न कोई अन्य वस्तु नहीं है; अतः उसकी प्राप्ति मेरी ही प्राप्ति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज