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चतुर्दश अध्याय
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नते ।। 20 ।।
यह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दु:खों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।।20।।
प्रश्न- यहाँ ‘देही’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि जो पहले अपने को देह में स्थित समझता था, वही गुणातीत होने पर अमृत को - ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
प्रश्न- ‘गुणान्’ पद के साथ ‘एतान्’, ‘देहसमुद्भवान’ और ‘त्रीन’- इन विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है? और गुणों से अतीत होना क्या है?
उत्तर- ‘एतान्’ के प्रयोग से यह बात दिखलायी गयी है कि इस अध्याय में जिन गुणों का स्वरूप बतलाया गया है और जो इस जीवात्मा को शरीर में बाँधने वाला हैं, उन्हीं से अतीत होने की बात यहाँ कही जाती है। ‘देहासमुद्भवान्’ विशेषण देकर यह दिखलाया है कि बुद्धि, अहंकार और मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच महाभूत और पाँच इन्द्रियों के विषय- इन तेईस तत्त्वों का पिण्डरूप यह स्थूल शरीर प्रकृति जन्य गुणों का ही कार्य है; अतएव इससे अपना सम्बन्ध मानना ही गुणों से लिप्त होना है। एवं ‘त्रीन्’ विशेषण देकर यह दिखलाया है कि इन गुणों के तीन भेद हैं और तीनों से सम्बन्ध छूटने पर ही मुक्ति होती है। रज और तमका सम्बन्ध छूटने के बाद यदि सत्त्वगुण से सम्बन्ध बना रहे तो वह भी मुक्ति में बाधक होकर पुनर्जन्म का कारण बन सकता है; अतएव उसका सम्बन्ध भी त्याग कर देना चाहिये। आत्मा वास्तव में असंग है, गुणों के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; तथापि जो अनादिसिद्ध अज्ञान से इनके साथ सम्बन्ध माना हुआ है, उस सम्बन्ध को ज्ञान के द्वारा तोड़ देना और अपने को निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म से अभिन्न और गुणों से सर्वथा सम्बन्धरहित समझ लेना अर्थात् प्रत्यक्ष की भाँति अनुभव कर लेना ही गुणों से अतीत हो जाना है।
प्रश्न- जन्म, मृत्यु, जरा और दुःखों से विमुक्त होना क्या है और उसके बाद अमृत को अनुभव करना क्या है?
उत्तर- जन्म और मरण तथा बाल, युवा और वृद्ध-अवस्था शरीर की होती है; एवं आधि और व्याधि आदि सब प्रकार के दुःख भी इन्द्रिय, मन और प्राण आदि के संघात रूप शरीर में ही व्याप्त रहते हैं। अतएव जिनका शरीर के साथ किंचिन्मात्र भी वास्तविक सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे पुरुष लोकदृष्टि से शरीर में रहते हुए भी वस्तुतः शरीर के धर्म जन्म, मृत्यु और जरा आदि से सदा-सर्वदा मुक्त ही हैं। अतः तत्त्वज्ञान के द्वारा शरीर से सर्वथा सम्बन्ध रहित हो जाना ही जन्म, मृत्यु, जरा और दुःखों से सर्वथा मुक्त हो जाना है। इसके अनन्तर जो अमृत स्वरूप सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को अभिन्नभाव से प्रत्यक्ष कर लेना है, जिसे उन्नीसवें श्लोक में भगवद्भाव की प्राप्ति के नाम से कहा गया है- वहीं यहाँ ‘अमृत’ का अनुभव करना है।
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