श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
प्रश्न- तीनों गुणों की वृद्धि में मरने वाले का प्रायः इसी प्रकार भिन्न-भिन्न फल चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकों में बतलाया ही गया था, फिर उसी बात को यहाँ पुनः क्यों कहा गया? उत्तर- उन श्लोकों में ‘यदा’ और ‘तदा’- इन कालवाची अव्ययों का प्रयोग है; अतएव दूसरे गुणों में स्वाभाविक स्थिति के होते हुए भी मरणकाल में जिस गुण की वृद्धि में मृत्यु होती है, उसी के अनुसार गति का परिवर्तन हो जाता है- यही भाव दिखलाने के लिये वहाँ भिन्न-भिन्न गतियाँ बतलायी गयी हैं और यहाँ जिनकी स्वाभाविक स्थायी स्थिति सत्त्वादि गुणों में है, उनकी गति के भेद का वर्णन किया गया है। अतएव पुनरुक्ति का दोष नहीं है। प्रश्न- पंद्रहवें श्लोक में तो तमोगुण में मरने का फल केवल मूढ़योनियों में जन्म लेना बतलाया गया है, यहाँ तामसी पुरुषों की गति के वर्णन में ‘अधः’ पद के अर्थ में नरकादि की प्राप्ति भी कैसे मानी गयी है? उत्तर- वहाँ उन सात्त्विक और राजस मनुष्यों की गति का वर्णन है, जो अन्त समय में तमोगुण की वृद्धि में मरते हैं। इसलिये ‘अधः’ पद का प्रयोग न करके ‘मूढयोनिषु’ पद का प्रयोग किया गया है; क्योंकि ऐसे पुरुषों का उस गुण के संग से ऐसा जन्म होता है, जैसा कि सत्त्वगुण में स्थित राजर्षि भरत को हरिण की योनि मिलने की कथा आती है। किन्तु जो सदा ही तमोगुण के कार्यों में स्थित रहने वाले तामस मनुष्य हैं, उनको नरकादि की प्राप्ति भी हो सकती है। सोलहवें अध्याय के बीसवें श्लोक में भगवान् ने कहा भी है कि वे तामस स्वभाव वाले मनुष्य आसुरी योनियों को प्राप्त होकर फिर उससे भी नीची गति को प्राप्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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