श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
उत्तर- जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म निष्कामभाव से किये जाते हैं, उन सात्त्विक कर्मों का वाचक यहाँ ‘सुकृतस्य’ विशेषण के सहित ‘कर्मणः’ पद है। ऐसे कर्मों के संस्कारों से अन्तःकरण में जो ज्ञान-वैराग्यादि निर्मल भावों का बार-बार प्रादुर्भाव होता रहता है और मरने के बाद जो दुःख और दोषों से रहित दिव्य प्रकाशमय लोकों की प्राप्ति होती है, वही उनका ‘सात्त्विक और निर्मल फल’ है। प्रश्न- राजस कर्म कौन-से हैं? और उनका फल दुःख क्या है? उत्तर- जो कर्म भोगों की प्राप्ति के लिये अहंकारपूर्वक बहुत परिश्रम के साथ किये जाते हैं[1], वे राजस हैं। ऐसे कर्मों के करते समय तो परिश्रमरूप दुःख होता ही है, परन्तु उसके बाद भी वे दुःख ही देते रहते हैं। उनके संस्कारों से अन्तःकरण में बार-बार भोग, कामना, लोभ और प्रवृत्ति आदि राजसभाव स्फुरित होते हैं- जिनसे मन विक्षिप्त होकर अशान्ति और दुःखों से भर जाता है। उन कर्मों के फलस्वरूप जो भोग प्राप्त होते हैं, वे भी अज्ञान से सुखरूप दीखने पर भी वस्तुतः दुःखरूप ही होते हैं। और फल भोगने के लिये जो बार-बार जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहना पड़ता है, वह तो महान् दुःख है ही। इस प्रकार उनका जो कुछ भी फल मिलता है, सब दुःखरूप ही होता है। प्रश्न- तामस कर्म कौन-से हैं और उनका फल अज्ञान क्या है? उत्तर- जो कर्म बिना सोचे-समझे मूर्खतावश किये जाते हैं और जिनमें हिंसा आदि दोष भरे रहते हैं[2], वे ‘तामस’ हैं। उनके संस्कारों से अन्तःकरण में मोह बढ़ता है और मरने के बाद जिन योनियों में तमोगुण की अधिकता है- ऐसी जड़ योनियों की प्राप्ति होती है; वही उसका फल ‘अज्ञान’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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