श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
प्रश्न- ‘भूतप्रकृतिमोक्षम्’ का क्या अभिप्राय है और उसकी ज्ञानचक्षु के द्वारा जानना क्या है? उत्तर- यहाँ ‘भूत’ शब्द प्रकृति के कार्यरूप समस्त दृश्यवर्ग का और ‘प्रकृति’ उसके कारण का वाचक है। अतः कार्यसहित प्रकृति से सर्वथा मुक्त हो जाना ही भूतप्रकृतिमोक्ष है। तथा उपर्युक्त प्रकार से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को जानने के साथ-साथ जो क्षेत्रज्ञ का प्रकृति से अलग होकर अपने वास्तविक परमात्मस्वरूप में अभिन्न भावों से प्रतिष्ठित हो जाना है यही कार्यसहित प्रकृति से मुक्त हो जाने को जानना है। अभिप्राय यह है कि जैसे स्वप्न में मनुष्य को किसी निमित्त से अपनी जाग्रत् अवस्था की स्मृति हो जाने से यह मालूम हो जाता है कि यह स्वप्न है, अतः अपने असली शरीर में जग जाना ही इसके दुःखों से छूटने का उपाय है। इस भाव का उदय होते ही वह जग उठता है वैसे ही ज्ञानयोगी का क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की विलक्षणता को समझकर साथ-ही-साथ जो यह समझ लेना है कि अज्ञानवश क्षेत्र को सच्ची वस्तु समझने के कारण ही इसके साथ मेरा सम्बन्ध-सा हो रहा था। अतः वास्तविक सच्चिदानन्दघन परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही इससे मुक्त होना है यही उसका कार्यसहित प्रकृति से मुक्त होने को जानना है। प्रश्न- जो इसको जानते हैं वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं इसका क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त तत्त्वज्ञान होने के साथ अज्ञानसहित समस्त दृश्य का अभाव हो जाता है और तत्काल ही उनको परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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