श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
उत्तर- तीसरे श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को ‘क्षेत्रज्ञ’ का स्वरूप और प्रभाव बतलाने का संकेत किया था। उसके अनुसार परब्रह्म परमात्मा के साथ क्षेत्रज्ञ की अभिन्नता दिखलाकर उसके वास्वविक स्वरूप का निरूपण करने के लिये यहाँ परमात्मा के वाचक भिन्न-भिन्न नामों का सहेतुक प्रयोग किया गया है। प्रश्न- शरीर में स्थित होने पर भी आत्मा कर्ता क्यों नहीं होता? और उससे लिप्त कैसे नहीं होता? उत्तर- वास्तव में प्रकृति के गुणों से और उनके ही विस्ताररूप, बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर से आत्मा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; वह गुणों से सर्वथा अतीत है। जैसे आकाश बादलों में स्थित होने पर भी उनका कर्ता नहीं बनता और उनसे लिप्त नहीं होता वैसे ही आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं बनता और शरीरों से लिप्त भी नहीं होता। इस बात को भगवान् स्वयं अगले दो श्लोकों में दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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