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त्रयोदश अध्याय
2. वैराग्य
विवेक के द्वारा सत्-असत् और नित्य-अनित्य का पृथक्करण हो जाने पर असत् और अनित्य से सहज ही राग हट जाता है, इसी का नाम ‘वैराग्य’ है। मन में भोगों की अभिलाषाएँ बनी हुई हैं और ऊपर से संसार से द्वेष और घृणा कर रहे हैं इसका नाम ‘वैराग्य’ नहीं है। वैराग्य में राग का सर्वथा अभाव है, वैराग्य यथार्थ में आभ्यन्तरिक अनासक्ति का नाम है। जिनको सच्चा वैराग्य प्राप्त होता है, उन पुरुषों के चित्त में ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों में तृष्णा और आसक्ति का अत्यन्त अभाव हो जाता है। वे असत् और अनित्य से हटकर अखण्ड रूप से सत् और नित्य में लगे रहते हैं। यही वैराग्य है। जब तक ऐसा वैराग्य न हो, तब तक समझना चाहिये कि विवेक में त्रुटि रह गयी है। विवेक की पूर्णता होने पर वैराग्य अवश्यम्भावी है।
3. षट्सम्पत्ति
इन विवेक और वैराग्य के फलस्वरूप साधक को छः विभागों वाली एक परमसम्पत्ति मिलती है, वह पूरी न मिले तब तक यह समझना चाहिये कि विवेक और वैराग्य में कसर की है। क्योंकि विवेक और वैराग्य से भलीभाँति सम्पन्न हो जाने पर साधक को इस सम्पत्ति का प्राप्त होना सहज है। इस सम्पत्ति का नाम ‘षट्सम्पत्ति’ और इसके छः विभाग ये हैं-
1. शम
मन का पूर्णरूप से निगृहीत, निश्चल और शान्त हो जाना ही ‘शम’ है। विवेक और वैराग्य की प्राप्ति होने पर मन स्वाभाविक ही निश्चल और शान्त हो जाता है।
2. दम
इन्द्रियों का पूर्णरूप से निगृहीत और विषयों के रसास्वाद से रहित हो जाना ‘दम’ है।
3. उपरति
विषयों से चित्त का उपरत हो जाना ही उपरति है। जब मन और इन्द्रियों को विषयों में रसानुभूति नहीं होगी, तब स्वाभाविक ही साधक की उनसे उपरति हो जायगी। यह उपरति भोगमात्र से- केवल बाहर से ही नहीं, भीतर से- होनी चाहिये। भोगसंकल्प की प्रेरणा से ब्रह्मलोक तक के दुर्लभ भोगों की ओर भी कभी वृत्ति ही न जाय, इसका नाम उपरति है।
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