श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: ।
उत्तर- इस कथन से क्षेत्रज्ञ के गुणातीत स्वरूप का निर्देश किया गया है। अभिप्राय यह है कि प्रकृतिजनित शरीरों की उपाधि से जो चेतन आत्मा अज्ञान के कारण जीवभाव को प्राप्त-सा प्रतीत होता है वह क्षेत्रज्ञ वास्तव में इस प्रकृति से सर्वथा अतीत परमात्मा ही है; क्योंकि उस परब्रह्म परमात्मा में और क्षेत्रज्ञ में वस्तुतः किसी प्रकार का भेद नहीं है, केवल शरीर रूप उपाधि से ही भेद की प्रतीति हो रही है। प्रश्न- वह आत्मा ही उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा भी कहा गया है- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस कथन से इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि भिन्न-भिन्न निमित्तों से एक ही परब्रह्म परमात्मा भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। वस्तुदृष्टि से ब्रह्म में किसी प्रकार का भेद नहीं है। अभिप्राय यह है कि सच्चिदानन्दघन परब्रह्म ही अन्तर्यामीरूप से सबके शुभाशुभ कर्मों का निरीक्षण करने वाला है, इसलिये उसे ‘उपद्रष्टा’ कहते हैं। वही अन्तर्यामी रूप से सम्मति चाहने वाले को उचित अनुमति देता है, इसलिये उसे ‘अनुमन्ता’ कहते हैं। वही विष्णुरूप से समस्त जगत् का रक्षण और पालन करता है, इसलिये उसे ‘भर्ता’ कहते हैं। वही देवताओं के रूप में समस्त यज्ञों की हवि को और समस्त प्राणियों के रूप में समस्त भोगों को भोगता है, इसलिये उसे ‘भोक्ता’ कहते हैं; वही समस्त लोकपाल और ब्रह्मादि ईश्वरों का भी नियमन करने वाला महान् ईश्वर है, इसलिये उसे ‘महेश्वर’ कहते हैं और वस्तुतः वह सदा ही सब गुणों से सर्वथा अतीत है इसलिये उसे ‘परमात्मा’ कहते हैं। इस प्रकार वह एक ही परब्रह्म ‘परमात्मा’ भिन्न-भिन्न निमित्तों से भिन्न-भिन्न नामों द्वारा पुकारा जाता है, वस्तुतः उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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