श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
उत्तर- ‘कार्य’ और ‘कारण’ पाठ मानने से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय- इन सोलह का वाचक ‘कार्य’ शब्द को समझना चाहिये; क्योंकि ये सब दूसरों के कार्य हैं, किन्तु स्वयं किसी के कारण नहीं हैं। तथा बुद्धि, अहंकार और पाँच सूक्ष्म महाभूतों का वाचक ‘कारण’ शब्द को समझना चाहिये। क्योंकि बुद्धि अहंकार का कारण है; अहंकार मन, इन्द्रिय और सूक्ष्म पाँच महाभूतों का कारण है तथा सूक्ष्म पाँच महाभूत पाँचों इन्द्रियों के विषयों के कारण हैं। प्रश्न- अन्तःकरण के बुद्धि, अहंकार, चित्त और मन- ऐसे चार भेद अन्य शास्त्रों में माने गये हैं; फिर भगवान् ने यहाँ तीन का ही वर्णन कैसे किया? उत्तर- भगवान् चित्त और मन को भिन्न तत्त्व नहीं मानते, एक ही तत्त्व के दो नाम मानते हैं। सांख्य और योगशास्त्र भी ऐसा ही मानते हैं। इसलिये अन्तःकरण के चार भेद न करके तीन भेद किये गये हैं। प्रश्न- ‘पुरुष’ शब्द चेतन आत्मा का वाचक है और आत्मा को निर्लेप तथा शुद्ध माना गया है; फिर यहाँ पुरुष को सुख-दुःखों के भोक्तापन में कारण कैसे कहा गया है? उत्तर- प्रकृति जड़ है, उसमें भोक्तापन की सम्भावना नहीं है और पुरुष असंग है, इसलिये उसमें भी वास्तव में भोक्तापन नहीं है। प्रकृति के संग से ही पुरुष में भोक्तापन की प्रतीति-सी होती है और यह प्रकृति-पुरुष का संग अनादि है, इसलिये यहाँ पुरुष को सुख-दुःखों के भोक्तापन में हेतु यानि निमित्त माना गया है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये अगले श्लोक में कह भी दिया है कि ‘प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृति जनित गुणों को भोगता है।’ अतएव प्रकृति से मुक्त पुरुष में भोक्तापन की गन्धमात्र भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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